Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 638
________________ १५०२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : __ नोट–'पुण्य-पाप' पर यह भी एक दृष्टि है, किन्तु एकान्तपक्ष ग्रहण करना उचित नहीं।' जिस ग्रन्थ में जिस अपेक्षा से कथन हो उस ग्रन्थ में उस अपेक्षा से 'पुण्य-पाप' का अर्थ करना; सर्वथा एक ही पक्ष को पकड़कर मर्थ करना उचित नहीं है। -जं.ग. ७ मार्च १६६३ पृ. ७ (१६) क्या पुण्य विष्ठा है ? शंका-क्या पुण्य विष्ठा है ? समयसार प्रवचन पुस्तक १ पृ० १२५ पर पुण्य के सम्बन्ध में निम्नप्रकार कहा है 'मनुष्य अनाज खाता है, उसकी विष्ठा भूड नामक प्राणी खाता है । ज्ञानी ने पुण्य को-जगत की धूलको विष्ठा समझकर त्याग दिया है, उधर अज्ञानी जन पुण्य को उमंग से अच्छा मानकर आदर करता है। इसप्रकार ज्ञानियों के द्वारा छोड़ी गई पुण्यरूप विष्ठा जगत के अज्ञानी जीव खाते हैं।' क्या यह सही है ? समाधान-यदि वास्तव में पुण्य विष्ठा होता तो आचार्य सम्यग्दृष्टिजीव को पुण्य न कहते। श्री स्वामिकार्तिकेय आचार्य ने पापजीव और पुण्यजीव का लक्षण निम्नप्रकार कहा है जीवो वि हवे पावं अइ-तिव्वकसाय-परिणदो-णिच्चं । जीवो वि हवइ पुण्णं उवसमभावेण संजुत्तो ॥१९०॥ अर्थ-जब यह जीव अतितीव्र कषायरूप परिणमन करता है तब यह जीव पापरूप होता है और जब उपशमभावरूप परिणमन करता है तब पुण्यरूप होता है। जीविदरे कम्मचये पुण्णं पावोति होदि पुण्णं तु । सुहपयडीणं दव्वं, पाव असुहाण दव्वं तु ॥६४३॥ गो. जी. इस गाथा में श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती ने बतलाया है कि मिथ्याष्टि और सासादनगूणस्थानवाले जीव पाप हैं, मिश्रगुणस्थानवाले जीव पुण्य और पाप के मिश्ररूप हैं। तथा असंयत से लेकर सभी संसारी जीव पुण्यरूप हैं। इस गाथा में क्षपकवेणीवाले जीवों को भी पुण्य कहा है तो क्या वे विष्ठा हैं। अर्थात् क्षपकश्रेणीवाले जीव पुण्यरूप होते हुए भी विष्ठा नहीं हैं। . श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार गाथा ४५ में 'पुण्णफला अरहंता' अर्थात् पुण्य का फल अरहंतपद है। तो क्या विष्ठा का फल अरहंतपद है । अर्थात् अरहंतपद विष्ठा का फल नहीं है। असुहस्स कारणेहि य कम्मच्छक्केहि णिच्च वट्टतो। पुण्णस्स कारणाई बंधस्स भयेण णिच्छंतो ॥३९७॥ ण मुणइ इय जो पुरसो जिणकहियपयत्थणवसरूवं तु । अप्पाणं सुयणमझे हासस्स य ठाणयं कुणई ॥३९८॥ भावसंग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664