Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
शंका-यवि सम्यक्त्व पुण्य है तो त. सू. अ. ८ सू. २५ में 'सातावेदनीय', 'शुभआयु' 'शुभनाम' और 'शुभगोत्र' को पुण्य क्यों कहा ?
समाधान-- प्रात्मा की पवित्रता का नाम 'पुण्य' है । 'वीतरागता' आत्मा की पवित्रता है जो मोहनीयकर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से होती है । शुभप्रायु, शुभनाम और शुभगोत्र भी मोहनीयकर्म के क्षय, उपशम व क्षयोपशम में सहकारी कारण हैं, क्योंकि, मनुष्यायु, मनुष्यगति प्रादि व उच्चगोत्र के उदय के बिना जीव संयम धारण नहीं कर सकता और जो संयमी होता है उसके शुभप्रायु, शुभनाम व शुभगोत्र का उदय अवश्य होता है । अतः शुभायु प्रादिक प्रात्मा की पवित्रता में निमित्तकारण होने से 'पुण्य' कहे गये हैं।
शंका-इस विषय में क्या कोई आगम प्रमाण भी है ? समाधान हाँ, आगमप्रमाण है । जो इसप्रकार है
'द्रव्याथिकनयापेक्षयामङ्गलपर्यायपरिणतजीवस्य पर्यायाथिकनयापेक्षया केवलज्ञानादिपर्यायाणां च मङ्गलस्वाभ्युपगमात् । केन मङ्गलम् ? औदयिकादिभावः ।'
अर्थात्-द्रव्याथिकनय की अपेक्षा मंगलपर्याय से परिणत जीव को और पर्यायाथिकनय की अपेक्षा केवलज्ञानादि पर्यायों को मंगल माना है। किसकारण मंगल उत्पन्न होता है ? औदयिकमादि भावों से मंगल होता है। यहाँ पर औदयिकभाव से प्रयोजन शुभनायु प्रादि पुण्य-प्रकृतियों के उदय से होनेवाले औदयिकभावों से है।
-जै. ग. 28 फरवरी 1963, 1.7 शंका-'साता वेदनीय' को पुण्य क्यों कहा है ?
समाधान-सयोगकेवली के ईर्यापथप्रास्रव के द्वारा अधिक सुख का उत्पादक 'अत्यधिक साता' का एकसमय स्थितिवाला उदयस्वरूप बंध होता है। वह साता ऐसे सुख को उत्पन्न करती है जो सुख देव और मनुष्य से अधिक है और सबप्रकार की बाधामों से दूर है । अतः सातावेदनीय पुण्य है।
शंका-इसमें प्रमाण क्या है ?
समाधान-षटखंडागम पस्तक १३ पत्र ५१ इसमें प्रमाण है।
शंका-सकषायी जीवों के 'सातावेदनीय' को पुण्य क्यों कहा है।
समाधान-जीव का स्वभाव सुख है। उस सुख स्वभाववाले जीवको दुःख उत्पन्न करनेवाला कर्म असातावेदनीय है । अर्थात्-असातावेदनीयकर्म जीव के सुखस्वभाव का घातकर दुःख उत्पन्न करने से पापप्रकृति है। दाख के प्रतिकार करने में कारणभूत सामग्री को मिलानेवाला और दुःख के उत्पादक कर्म ( असातावेदनीय ) की शक्ति का विनाश करने वाला सातावेदनीय कर्म है। जीव के सुख स्वभाव का घात करने वाले कर्म ( असातावेदनीय) की शक्ति का नाश करने वाला ( साता वेदनीय ) पुण्य के अतिरिक्त क्या हो सकता है ? अथवा जो सुख का वेदन कराती है वह साता वेदनीय है, अत: साता वेदनीय भी पुण्य है।
शंका-इसमें प्रमाण क्या है। समाधान-षट्खंडागम पुस्तक १३ पत्र ३५७ व पुस्तक ६ पत्र ३५-३६ इसके प्रमाण हैं ।
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