Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १४९९
समाधान-पुण्य धर्म है । 'स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यं श्रेयसी सुकृतं वृषः ।' अर्थात् 'धर्म' 'पुण्य' 'श्रेयस्', 'सुकृत' और 'वृष' ये पांचों एकार्थवाची शब्द हैं । श्री कुन्दकुन्द भगवान ने भी 'पुण्य' को 'धर्म' कहा है । (प्र.सा. गाथा ११) लोक व्यवहार में भी 'पुण्य' को 'धर्म' सब ही कहते हैं । 'पुण्य करो' 'धर्म करो', ऐसा कहा जाता है। 'पण्य' को 'अधर्म' कहीं पर नहीं कहा गया और न ऐसा कहना उचित है।
शंका-पाप किसे कहते हैं ?
समाधान-पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम् ।' अर्थात् जो प्रात्मा को हित से वंचित रखता है वह 'पाप' है।
शंका-पाप क्या धर्म है या अधर्म ? समाधान-पुण्य से विपरीत होने के कारण 'पाप' अधर्म है, धर्म नहीं है । शंका वास्तविक पुण्य और पाप क्या है ?
समाधान-सम्यक्त्व अर्थात् सम्यग्दर्शन वास्तविक पुण्य है और मिथ्यात्व अर्थात मिथ्यादर्शन वास्तविक पाप है।
न सम्यक्त्त्वं समकिञ्चित, काल्ये त्रिजगत्यपि।
बेयोऽधे यश्चमिथ्यात्व-समं नान्यत्तनूभृताम् ॥ अर्थात-तीनलोक तीनकाल में सम्यक्त्त्व के समान कोई पुण्य ( श्रेय ) नहीं है। और मिथ्यात्व के समान कोई पाप नहीं है।
शंका-मिथ्यात्व पाप क्यों है ?
समाधान-जिससमय मनुष्य मदिरापान करके नशे में भरपूर हो जाता है उस समय मनुष्य को अपने हिताहित का विवेक न रहने से मनुष्य अपने हितसे वंचित रहता है । उससमय वह अपने आपको भी भूल जाता है। अर्थात् ' मैं कौन हूँ' इस बात का भी उसको ज्ञान नहीं रहता। उसीप्रकार मिथ्यात्वकर्मोदय से जब यह मात्मा मोहित हो जाती है तब इसको अपने हिताहित का विवेक नहीं रहता और अपने पापको भूल जाने से उसको यह भी ज्ञान नहीं रहता कि 'मैं कौन हूँ।' जो आपे को भुला दे ऐसा जो मिथ्यात्व अर्थात् मोह उससे अधिक कोई पाप नहीं है। अतः मोह ही वास्तविक पाप है।
शंका-सम्यक्त्व पुण्य क्यों है ?
समाधान-जब नशा कुछ कम होता है तब वह औषधि प्रादि को ग्रहण करता है जिससे मदिरा का प्रभाव दूर होने पर वह मनुष्य होश में आता है। होश में आने पर अपने व पराये की पहिचान होती है और हिताहित का ज्ञान होता है। होश आने पर ही वह अहित से बचकर हित में प्रवृत्ति कर सकता है। इसी प्रकार जब मोह का मंद उदय होता है तब यह प्रात्मा तत्त्वोपदेशरूपी औषधि को ग्रहण करता है जिससे मोहोदय दूर होता है अर्थात् प्रभाव होता और मोहरूपी नशा दूर होता है । तब सम्यक्त्त्व हो जाने से उस आत्मा को स्व और पर की पहिचान होती है और हिताहित का विवेक जागृत होता है, जिससे रागादि और उनके कारणों से बचकर वीतरागता की प्रोर बढ़ सकता है। अतः सम्यक्त्व वास्तविक पुण्य है जिससे स्व और पर का यथार्थ निश्चय अर्थात् श्रद्धान होता है।
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