Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व र कृतित्व ]
'मोक्षस्य कारणमभिष्टुतमत्र लोके तद्धार्यते मुनिभिरङ्गबलात्तदन्नात् । ' ( प० न० पं० २१० )
अर्थात् - लोक में मोक्षके कारणभूत जिस रत्नत्रय की स्तुति की जाती है वह मुनियों के द्वारा शरीर की शक्ति से धारण किया जाता है । वह शरीर की शक्ति भोजन से प्राप्त होती है ।
इस सब का तात्पर्य यह है कि मुनि बुद्धिपूर्वक जो आहार के लिये चर्या करते हैं, वह चर्या यदि संयम और तप की वृद्धि की दृष्टि से ( शरीर को श्राहार देने के लिये ) की जाती है तो अल्प लेप ( अल्पकर्म ) बन्ध होते हुए भी निषिद्ध नहीं है; और यदि वह चर्या शरीर को तथा इन्द्रियों को पोषने के लिए की जाती है तो वह निषिद्ध है । संयम और तप के लिए शरीर - पालन करने का निषेध नहीं है, किन्तु विषयभोगों के लिए शरीर - पालन करने का निषेध है । शरीर पालन का सर्वथा निषेध नहीं है । यदि कोई एकान्तमिथ्यादृष्टि अल्प लेप के भय से अथवा शरीर को कारागृह जानकर शरीर का पालन छोड़ दे तो वह संयम से भ्रष्ट होकर संसार में भ्रमण करेगा । कहा भी है
[ १४९७
' देशकालज्ञस्यापि बालवृद्ध श्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहार-विहारयोरल्पलेपभयेनाप्रवर्तमानस्यातिकर्कशाचरणीभूयाक्रमेण शरीरं पातयित्वा सुरलोकं प्राप्योद्वान्तसमस्तसंयमामृतभारस्य तपसोऽनवकाशतया शक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति, तन्न श्रेयानपवादनिरपेक्ष उत्सर्गः । [ प्रवचनसार २३१ टीका ]
देश व काल का जानने वाला मुनि भी यदि अल्प कर्मबन्ध के भय से आहार-विहार न करे तो कर्कश आचरण के द्वारा श्रकालमरण करके देवगति में उत्पन्न होगा, जिससे उसका समय समय में छूट जायगा । देवगति में संयम व तप के अभाव में महान् कर्मबन्ध होगा जिसका प्रतिकार होना शक्य है ।
जिस प्रकार शरीर का पालन तप, संयम के लिये भी हो सकता है और विषय-भोगों के लिये भी हो सकता है । उसी प्रकार पुण्योपार्जन व संचय, तप व संयम के लिए भी हो सकता है और सांसारिक सुख व विषयभोगों के लिए भी हो सकता है ।
सम्यग्दृष्टि मुनि जिस प्रकार संयम व तप के लिए शरीर का पालन करता है, संयम व तप के लिए पुण्य का उपार्जन व संचय करता है, क्योंकि उस पुण्योदय से रत्नत्रय की प्राप्ति होती है । सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री वीरनंदि आचार्य ने कहा भी है
काक्षैविक लाक्षपं चकरणासंज्ञव्रजैर्जातु या,
लब्धा वोधिरगण्यपुण्यवशतः संपूर्ण पर्याप्तिभिः ।
भव्यैः संज्ञिभिराप्तलब्धिविधिभिः कैश्चित्कदा चित्वव चित्
प्राप्या सा रमतां मदीयहृदये स्वर्गापवर्गप्रदा ||१०|४३|| ( आचारसार )
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रत्नत्रय की प्राप्ति को बोधि कहते हैं । यह बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति एकेन्द्रिय, विकलत्रय व असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के नहीं होती है। जिन जीवों के महापुण्य का उदय होता है, पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं, जो संज्ञी पंचेन्द्रिय होते हैं, भव्य होते हैं, जिन्हें लब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, ऐसे कितने ही जीवों को, किसी काल और किसी क्षेत्र में उस रत्नत्रय की प्राप्ति होती है । वह रत्नत्रय स्वर्ग व मोक्ष को देनेवाला है । अर्थात् महान् पुण्य के बिना रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती है ।
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