Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 631
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] चदुर्गादिमिच्छो सण्णी पुष्णो गढभजविसुद्धसागारो । पढमुवसमं स गिन्हवि पञ्चमवरलद्धिचरिमम्हि || २ || (लब्धिसार) अर्थ - चारों गतिवाला मिध्यादृष्टि, संज्ञी, पर्याप्त, मनुष्य या तिर्यञ्च गर्भज, क्रोधादि मंद कषायरूप विशुद्ध परिणाम का धारक ज्ञानोपयोगी जीव पंचम लब्धि के अन्तिम समय में प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त होता है । इस प्रकार भव्य मिथ्यादृष्टि के लिये भी विशुद्धपरिणाम उपादेय हैं, क्योंकि विशुद्ध परिणामों के बिना सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं हो सकता श्रौर संक्लेश परिणाम हेय हैं, क्योंकि संक्लेश परिणाम सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में बाधक हैं । [ १४९५ यद्यपि भव्य जीव के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं हो सकती है तथापि उसके लिये भी मंद कषाय रूप विशुद्ध परिणाम उपादेय हैं, क्योंकि उनसे देव गति श्रादि के सुख प्राप्त होते हैं । संक्लेश परिणाम हेय हैं, क्योंकि उनसे नरक गति आदि के दुःख प्राप्त होते हैं । जीव के परिणाम तीन प्रकार के होते हैं- विशुद्ध, शुद्ध तीव्र कषाय रूप परिणाम संक्लेश परिणाम हैं, मंद कषायरूप परिणाम विशुद्ध परिणाम हैं और कषाय-रहित परिणाम शुद्ध परिणाम हैं । वीतराग-विज्ञान रूप जीव-स्वभाव के घातक ज्ञानावरणादि अप्रशस्त कर्मों का तीव्रबन्ध संक्लेश परिणामों से होता है; विशुद्धपरिणामों सेमंद बन्ध होता है । यदि विशुद्ध परिणाम प्रबल होते हैं तो पूर्व में जो तीव्र बन्ध हुआ था उसके भी स्थिति, अनुभाग कटकर मन्द हो जाते हैं तथा अनेक कर्मों का बन्ध रुक जाता है । कषायरहित शुद्ध परिणामों से मात्र, निर्जरा होती है, बन्ध नहीं होता। श्री अरहंतादि का स्तवनादि रूप परिणाम मन्द कषाय रूप विशुद्ध भाव हैं । ये विशुद्ध परिणाम समस्त कषाय भाव मिटाने के साधन हैं, अतः ये विशुद्ध परिणाम के कारण हैं । सो ऐसे विशुद्ध परिणामों के द्वारा जीवस्त्रभावघातक - घातिकर्मों का हीनपना होने से सहज ही वीतराग - विज्ञान स्वरूप प्रगट होता है । उपर्युक्त कथन का सारांश यह है कि जब तक साधक वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित नहीं होता तब तक विशुद्धपरिणाम-शुभभाव उपादेय हैं । वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होने पर बुद्धिपूर्वक शुभ भाव स्वयमेत्र छूट जाते हैं । संक्लेश परिणाम हेय हैं। वर्तमान पंचमकाल भरतक्षेत्र में वीतराग निर्विकल्प समाधि नहीं हो सकती है । मात्र धर्मध्यान आदि शुभ भाव हो सकते हैं । इसलिये वर्तमान अवस्था में हमारे लिये शुभ भाव, ' विशुद्ध परिणाम ही उपादेय हैं । Jain Education International पुण्यात् सुरासुरनरौरगभोगसाराः, श्रीरापुरप्रमितरूपसमृद्धयो गीः । साम्राज्यमैन्द्रमपुनर्भवभावनिष्ठ मार्हन्त्यमन्त्य रहिताखिलसौख्यमप्रयम् ॥ २७२ ॥ महापुराण सर्ग १६ ॥ अर्थ- सुर, श्रसुर, मनुष्य और नागेन्द्र आदि के उत्तम उत्तम भोग, लक्ष्मी, दीर्घ प्रायु, अनुपम रूप, समृद्धि, उत्तमवाणी, चक्रवर्ती का साम्राज्य, इंद्रपद, जिसे पाकर फिर संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता ऐसा रहत पद और अन्तरहित समस्त सुख देने वाला श्र ेष्ठ निर्वाणपद इन सबकी प्राप्ति पुण्य से होती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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