Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 629
________________ व्यक्तित्व प्रोर कृतित्व ] [ १४९३ समाधान --- पाप बहिरात्मा, पुण्य अन्तरात्मा इन दोनों का त्याग करके अरहंत परमात्मा बनता है। वही अर्थात् अरहंत परमात्मा ही प्रत्यक्ष रूप से साक्षात् आत्मा को जानता है । यह गाथा ३२ का अभिप्राय है । बहिरात्मा को परसमय सब कहते हैं किन्तु पुण्य श्रर्थात् श्रन्तरात्मा को परसमय कहने वाले विरले हैं, यह गाथा ७१ का अभिप्राय है । जो शुभ और अशुभ भावों को त्यागकर क्षीणमोह हो जाते हैं वे ही निश्चय से ज्ञानी अर्थात् केवलज्ञानी होते हैं । यह गाथा ७२ का अभिप्राय है । क्या कोई भी व्यक्ति अशुभ भावों ( प्रातरौद्रध्यान ) का त्याग कर शुभभाव ( धर्मध्यान ) के द्वारा मोहनीय कर्म का नाश किये बिना श्ररहंत परमात्मा बन सकता है ? धर्मध्यान शुभ भाव है ऐसा श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने 'भावपाड़' गाथा ७६ में कहा है और इस शुभ भाव रूप धर्मध्यान को श्री उमास्वामी ने 'परे मोक्षहेतू' सूत्र द्वारा मोक्ष का कारण बतलाया है। श्री वीरसेन आचार्य ने 'धवल' पु० १३ पृ० ८१ पर इस शुभभाव रूप धर्मध्यान से मोहनीय कर्म का क्षय होना कहा है । प्रकररण संख्या ३ में इसका विशेष विवेचन है । कार्य - समयसार का उत्पादन होने पर कारण - समयसार का व्यय होता है अर्थात् शुद्धभावरूप अरहंत पद ( कार्यसमयसार ) के उत्पाद होने पर शुभ रूप अन्तरात्मा ( कारण - समयसार ) का व्यय हो जाता है । यदि पुण्य और पाप सर्वथा समान होते तो श्री उमास्वामी आचार्य ने 'तत्त्वार्थसूत्र' अध्याय ७ के निम्नलिखित सूत्रों में जिस प्रकार पाप को दुःख रूप तथा जीव का नाश करने वाला कहा है, उसी प्रकार पुण्य को भी दुःख रूप और नाश करने वाला कहते, इससे सिद्ध है कि पुण्य और पाप में महान् प्रन्तर भी है । 'हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ||९|| दुःखमेव वा ||१०|| [ तत्त्वार्थ सूत्र अ० ७ ] अर्थ - हिंसादिक पाँच पापों से इस लोक और परलोक में अपाय ( स्वर्ग और मोक्ष की प्रयोजक क्रियाओं का विनाश करनेवाली प्रवृत्ति ) और श्रवद्य (गर्हा, निन्दा) देखी जाती है, अथवा हिंसा आदि पाँच पाप दुःख रूप ही हैं, ऐसी भावना करनी चाहिए । इससे यह भी सिद्ध होता है कि पुण्य स्वर्ग और मोक्ष की प्रयोजक क्रियाओं का विनाश करने वाला नहीं है, अपितु साधन है । यही बात श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने 'प्रवचनसार' में कही है असुभोवयोग रहिदा सुद्ध्रुवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा । नित्थारयति जोगं तेसु पलत्थं लहदि भत्तो ॥ २६०॥ अर्थ - जो मुनि श्रशुभोपयोग (पाप) रहित वर्तते हुए शुद्धोपयुक्त (पुण्य-पाप से रहित ) अथवा शुभोपयुक्त ( पुण्यरहित ) होते हैं, वे भव्यों को संसार से पार कर देते हैं और उनके प्रति भक्तिमान जीव प्रशस्त ( पुण्य ) को प्राप्त करता है । (१३) संक्लेश व विशुद्ध परिणाम मिध्यादृष्टि जीवों के कभी कषाय का उदय तीव्र होता है और कभी मंद। कषाय के तीव्र उदय में संक्लेश परिणाम होते हैं जिनसे असातादि श्रप्रशस्त अघाति कर्मों का बन्ध होता है । कषाय के मंद उदय में असंक्लेश अर्थात् विरुद्ध परिणाम होते हैं जिनसे साता आदि प्रशस्त अघातिया कर्मों का बन्ध होता है । कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664