Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 628
________________ १४९२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : संस्कृत टीका-सम्यक्त्वरहिता जीवाः पुण्यसहिता अपि पापजीवा भण्यन्ते । सम्यक्त्वसहिताः पुनः पूर्वभवान्तरोपाजितपापफलं भुजाना अपि पुण्यजीवा भण्यन्ते येन कारणेन, तेन सम्यक्त्वसहितानां मरणमपि भद्रम् । सम्यक्त्व-रहितानां च पुण्यमपि भद्र न भवति । कस्मात् ? तेन निदानबद्धपुण्येन भवान्तरे भोगान् लब्ध्वा पश्चान्नरकादिकं गच्छन्तीति भावार्थः ॥५॥ ___ अर्थ-सम्यक्त्वरहित मिथ्यादृष्टि जीव पुण्य-सहित हैं तो भी पापी जीव हैं । जो सम्यक्त्वसहित हैं किन्तु पूर्व भव में उपार्जित पाप-कर्म को भोग रहे हैं, वे पुण्य जीव हैं। इसलिए जो सम्यक्त्वसहित हैं उनका मरना भी अच्छा है। क्योंकि मरकर ऊर्ध्व गति में जावेंगे । सम्यक्त्व-रहित का पुण्य भी अच्छा नहीं है। क्योंकि वे निदानबन्ध सहित पुण्य से भवान्तर में भोगों को भोगकर नरकादि में जाते हैं । गाथा ६० में मिथ्यादृष्टियों के पुण्य का निषेध करते हैं पुष्पगेण होइ विहवो विहवेण मओ मएण मइमोहो। मइमोहेण य पावं ता पुण्णं अम्ह मा होउ ॥६०॥ संस्कृत टीका-इदं पूर्वोक्तं पुण्यं भेदाभेद-रत्नत्रयाराधनारहितेन दृष्टश्रुतानुभूतभोगकांक्षारूपनिदानबन्धपरिणामसहितेन जीवेन यदुपाजितं पूर्वभवे तदेव महमहं कारं जनयति बुद्धि विनाशं च करोति । न च पुनः सम्यक्त्वादिगुणसहितं भरत-सगरपाण्डवादिपुण्य बन्धवत । यदि पूनः सर्वेषां मदं जनयति तहि ते कथं पुण्यभ मदाहंकारादि-विकल्पम् त्यक्त्वा मोक्षं गता इति भावार्थः॥६०॥ अर्थ-भेदाभेद रत्नत्रय की प्राराधना से रहित मिथ्यादृष्टि जीव ने देखे-सुने-अनुभव किये गये भोगों की वांछारूप निदानबन्ध के परिणामों से पूर्व भव में जो पुण्य उपाजित किया था, उसके वह पुण्य मद-अहंकार उत्पन्न करता है और बुद्धि का विनाश करता है। जो सम्यक्त्व आदि गुणसहित भरत, सगर, राम पांडव आदि हुए हैं उनको पुण्य अभिमान उत्पन्न नहीं कर सका, यदि पुण्य सबको मद उत्पन्न करता होता तो पुण्य के भाजन पुरुष अर्थात् पुण्यवान् पुरुष मद अहंकार को छोड़ कर मोक्ष कसे जाते । अर्थात् पुण्य सबको मद-अहंकार उत्पन्न नहीं करता क्योंकि बहुत से पुण्यवान् जीव मद-अहंकार को त्याग कर मोक्ष जाते हैं। इन सब गाथानों का अभिप्राय इस प्रकार है कि किसी अज्ञानी के हाथ में शत्रुघातक शस्त्र प्रा गया किन्तु वह उसका ठीक प्रयोग करना नहीं जानता; इसलिए शत्रु का घात न कर अपना घात कर लेता है। यदि वही शस्त्र ज्ञानीके हाथ में आ जाय तो वह उसका उचित प्रयोग कर शत्रु का घात कर सुख से रहता है। इसी य करनेवाला ऐसा उच्चगोत्र, उत्तम संहनन आदि पुण्यरूपी शस्त्र अज्ञानी के पास होता है तो ज्ञानी कर्मशत्रु का नाश न कर अपनी आत्मा के गुणों का घात कर लेता है। यदि वही पुण्यरूपी शस्त्र ज्ञानी के पास हो तो वह कर्मों का नाश कर मोक्षसुख को भोगता है। गाया ६२ की टीका में कहा है—'देवशास्त्रमुनीनां साक्षात् पुण्यबन्ध-हेतुभूतानां परपरया मुक्तिकारणभूतानां वा' अर्थात् देव, शास्त्र, गुरु ये साक्षात् पुण्य-बन्ध के कारण हैं और परम्परा से मोक्ष के कारण हैं। शंका-'योगसार' गाथा ३२ में कहा है कि 'जो पुण्य और पाप को छोड़कर आत्मा को जानता है वह मोक्ष को प्राप्त करता है। इससे स्पष्ट है कि पाप के समान पुण्य भी त्याज्य है। इसी बात को गाथा ७१ में भी कहा है कि पुण्य को पाप कहने वाले ज्ञानी विरले हैं। गाथा ७२ में कहा है कि जो शुभ और अशुभ दोनों का त्याग कर देते हैं निश्चय से वे ही ज्ञानी होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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