Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 627
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४९१ 'पुण्य और पाप दोनों समान हैं' यह कथन वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित मुनि की अपेक्षा से है। इसका विचार श्री ब्रह्मदेव सूरि ने टीका में इस प्रकार किया है 'अवाह प्रभाकरभट्टः-तहि ये केचन पुण्यपापद्वयं समानं कृत्वा तिष्ठन्ति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति । भगवानाह-यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं विगुप्तिगुप्तवीतराग-निर्विकल्पसमाधि लब्ध्वा तिष्ठन्ति तवा संमतमेव । यदि पुनस्तथाविधामवस्थामलभमाना अपि सन्ता गृहस्थावस्थायां दानपूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां षडावश्यकाविकं च त्यक्त्वोभयभ्रष्टा सन्तः तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम् ॥५५॥ अर्थ–'पुण्य और पाप समान हैं' यह कथन सुनकर प्रभाकर भट्ट बोला- यदि ऐसा ही है, तो जो कितने लोग पुण्य-पाप को समान मानते हैं, उनको तुम दोष क्यों देते हो? तब श्री योगीन्द्र देव ने कहा यदि गुप्ति से गुप्त शुद्धात्मानुभूति-स्वरूप वीतराग निर्विकल्पसमाधि में ठहरकर पुण्य पाप को समान जानते हैं तो योग्य है । परन्तु जो इस निर्विकल्पसमाधि को न पाकर भी पुण्य-पाप को समान जानकर गृहस्थ-अवस्था में दान-पूजा आदि शुभ क्रियाओं को छोड़ देते हैं और मुनिपद में छह प्रावश्यक कर्मों को छोड़ देते हैं, वे दोनों बातों से भ्रष्ट हैं। वे निन्दा योग्य हैं । उनको दोष ही है, ऐसा जानना । गाथा ५७ में बतलाते हैं कि निदान बन्ध से उपार्जित पुण्य जीव को राज्यादि विभूति देकर नरकादि दुःख उत्पन्न कराते हैं, इसलिये ऐसे पुण्य अच्छे नहीं हैं । मं पुष्णु पुण्णइं भल्लाइं गाणिय ताई भगति । जीवहं रज्जइं देवि लहु दुक्खई जाई जणंति ॥२॥५७॥ संस्कृत टीका-निदानबन्धोपार्जितपुण्येन भवान्तरे राज्यादिविभूतौ लब्धायां तु भोगान् त्यक्तु न शक्नोति तेन पुण्येन नरकादिदुःखं लभते । रावणादिवत् । तेन कारणेन पुण्यानि हेयानोति । ये पुननिदानरहितपुण्यसहिताः पुरुषास्ते भवान्तरे राज्यादिभोगे लब्धेऽपि भोगांस्त्यक्त्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा चोर्ध्वगतिगामिनो भवन्ति बलदेवादिवदिति भावार्थः ।' ऊर्ध्वगा बलदेवाः स्युनिनिदाना भवान्तरे' इत्यादि वचनात् ॥५७॥ अर्थ-निदान बन्ध से उपार्जन किये गये पुण्य जीव को दूसरे भवमें राज्यसम्पदा देते हैं। उस राज्यविभूति को पाकर अज्ञानी जीव विषय-भोगों को छोड़ नहीं सकता, उससे नरकादि के दुःख पाता है, रावण आदि की तरह; इसलिये प्रज्ञानियों का पुण्य हेय है। जो निदानरहित और पुण्यरहित पुरुष हैं वे दूसरे भव में राज्यादि भोगों को पाते हैं तो भी भोगों को छोड़कर जिन-दीक्षा धारण करके ऊर्ध्व-गति को जाते हैं, बलदेव प्रादि की तरह । निदान बन्ध नहीं करते हुए महामुनि महान् तप करके भवान्तर में स्वर्गलोक जाते हैं, वहाँ से चलकर बलभद्र होते हैं । वे देवों से भी अधिक सुख भोग कर राज्यका त्याग करके मुनिव्रत धारण करके या तो मोक्ष जाते हैं या बड़ी ऋद्धिके देव होकर फिर मनुष्य होकर मोक्ष जाते हैं । इस प्रकार ज्ञानियों का पुण्य हेय नहीं है। गापा ५८ में कहा है कि निर्मल सम्यक्त्वधारी जीव को मरण भी सुखकारी है और सम्यक्त्व के बिना पुण्य अच्छा नहीं है। वर णियसणअहिमुहउ मरण वि जीव लहेसि । मा णियवसणविम्मुहउ पुण्ण वि जीव करेसि ॥२-५८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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