Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १४७३
इसी प्रकार शुभ और अशुभ कर्म पौद्गलिक होने की अपेक्षा यद्यपि समान हैं तथापि मोक्षमार्ग में साधकता और बाधकता की अपेक्षा तथा सुख और दुःख की प्रपेक्षा इन ( पुण्य कर्म और पाप कर्म ) में महान् अन्तर है अतः - अन्तरात्मा, पुण्यजीप और पुण्यकर्म कथंचित् उपादेय हैं, सर्वथा हेय नहीं हैं ।
यदि यह कहा जाय कि व्यवहारनय से पुण्य कथंचित् उपादेय हो सकता है किन्तु निश्चयनय से तो पुण्य सर्वथा हेय ही है । सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि निश्चय नय में हेय - उपादेय का विकल्प नहीं होता ।
श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने 'वारस अणुवेक्खा' गाथा ८६ में 'हेयमुवादेय णिच्छये णत्थि' इन शब्दों द्वारा बतलाया है कि निश्चयनय से न कोई हेय है और न कोई उपादेय है ।
इस प्रकार अनेकान्त का आश्रय लेकर पुण्य और पाप का यथार्थ स्वरूप समझना चाहिए । यदि कोई एकान्त की हठ ग्रहण करेगा तो उसको संसार में भ्रमण करना पड़ेगा ।
(५) एक ही परिणाम से दो विभिन्न कार्य
यहाँ प्रश्न होता है कि शुभोपयोग ( पुण्य भाव ) से बंध होता है और जो बंध का कारण है वह मोक्ष - का कारण नही हो सकता है, क्योंकि बंध और मोक्ष दोनों का एक कारण नहीं हो सकता है ?
इस प्रश्न में दो बातें विचारणीय हैं (१) जो मोक्ष का कारण है क्या उससे बंध नहीं हो सकता ? ( २ ) शुभोपयोग अर्थात् पुण्य-भाव वाले जीव के अथवा पुण्य-जीव के जो बंध होता है वह किस प्रकार का होता है ? इनमें से प्रथम वार्ता पर विचार किया जाता है
श्री कुन्दकुन्द श्री पूज्यपाद श्रादि प्राचार्यों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि एक ही कारण से मोक्ष भी हो सकता है और पुण्यबंध होकर सांसारिक सुख भी मिल सकते हैं ।
जिणवरमयेण जोई हारते जाएह सुद्धमपाणं ।
जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ कि तेण सुरलोयं ॥२०॥
जो जाइ जोयणसयं वियहेतेक्केण लेइ गुरुभारं ।
सो कि कोपि हु ण सक्कर जाहु भुवणयले ॥२१॥ ( मोक्ष पाहुड )
श्री
कुन्दकुन्द
आचार्य कहते हैं कि जिन भगवान् के मत से योगी शुद्ध श्रात्मा का ध्यान करता है जिससे वह मोक्ष पाता है; उसी प्रात्मध्यान से क्या स्वर्गलोक प्राप्त नहीं करता ? अर्थात् अवश्य प्राप्त कर सकता है ॥२०॥ जैसे जो पुरुष भारी बोझ लेकर एक दिन में सौ योजन जाता है; वही पुरुष क्या भूमि पर आधा कोस भी नहीं चल सकता अर्थात् सरलता से चल सकता है ||२१|| ( यहां पर यह बतलाया गया है कि जिस आत्मध्यान से मोक्ष की प्राप्ति होती है उसी आत्मध्यान से पुण्यबंध होकर उसके फलस्वरूप स्वर्ग में देव होता है । )
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यत्र भावः शिवं दत्ते, द्यौः कियद्दूरवर्तिनी ।
यो नयत्याशु गव्यूति, कोशाधें कि स सीदति ? ॥ ४ ॥ ( इष्टोपदेश )
अर्थ - जो परिणाम भव्य प्राणियों को मोक्ष प्रदान करते हैं, मोक्ष देने में समर्थ हैं, ऐसे आत्मपरिणामों के लिये स्वर्ग कितनी दूर है ? कुछ दूर नहीं है, वह तो उसके निकट ही समझो अर्थात् स्वर्ग तो स्वात्मध्यान से
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