Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 622
________________ १४८६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इस प्रकार 'समयसार' ग्रन्थ में पुण्य व पाप को किन्हीं अपेक्षानों से समान बतलाते हुए भी उनमें मोक्षमार्ग व ससारमार्ग की अपेक्षा अन्तर बतलाया है। (E) पंचास्तिकाय' ग्रन्थ की अपेक्षा पुण्य-पाप विचार श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने 'पञ्चास्तिकाय' गाथा १३२ में शुभ से पुण्य प्रास्रव का कथन करके गाथा १३५ में शुभ के तीन भेद किये हैं--(१) प्रशस्त राग, (२) अनुकम्पा, (३) अकलुषता। इन तीनों का स्वरूप गाथा १३६, १३७ व १३८ में कहा गया है। वे गाथाएँ इस प्रकार हैं रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो । चित्तम्हि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि ॥१३॥ अरहंत-सिद्ध-साहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा। अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति बुच्चंति ॥१३६॥ तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिवं दळूण जो दु दुहिदमणो । पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकपा ॥१३७॥ कोधो व जदा माणो माया लोभीव चित्तमासेज्ज।' जीवस्स कुणदि खोहं कलुसो ति य त बुधा वेति ॥१३८॥ अर्थ-जिस जीव के प्रशस्त राग, अनुकम्पायुक्त परिणाम और अकलुषता है उस जीव के पुण्य का आस्रव होता है ॥१३५।। अहंतसिद्ध-साधु की भक्ति, सरागचारित्र रूप प्रवृत्ति, गुरुओं के अनुकूल चलना यह प्रशस्तराग है, ऐसा प्राचार्य कहते हैं ।।१३६॥ जो कोई प्यासे-भूखे तथा दुखी को देखकर दुखी होता हुआ दयाभाव से उसका दुख दूर करता है उसके यह अनुकम्पा होती है ।।१३७॥ जिस समय क्रोध, मान, माया, लोभ चित्तमें उत्पन्न हो करके आत्मा के भीतर आकुलता पैदा कर देते हैं, वह प्राकुलता कलुषता है, इस कलुषता का प्रभाव अकलुषता है ।।१३८॥ श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने 'पञ्चास्तिकाय' की उपयुक्त गाथानों में पुण्य प्रास्रव के तीन कारण बतलाये हैं(१) प्रशस्तराग, (२) अनुकम्पा, (३) अकलुषता। तीनों ही सम्यग्दर्शन के गुण हैं । 'प्रशस्त राग' संवेग और भक्ति का नामान्तर है । 'अकलुषता' उपशम या प्रशम का पर्यायवाची है । सम्यग्दर्शन के पाठ गुण इसप्रकार हैं संवेगो णिव्वेओ जिंदा गरहा उमसमो भत्ती। वच्छल्लं अणुकम्पा अट्ठ गुणा हुति सम्मत्त ॥४९॥ (वसु. श्राव.) अर्थ-सम्यग्दर्शन के होने पर संवेग, निवेग, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये पाठ गुण उत्पन्न होते हैं ॥४९॥ इनका लक्षण इस प्रकार है धर्म धर्मफले च परमा प्रीतिः संवेगः। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु तद्वत्सु च भक्तिः। रागादीनामनुद्र कः प्रशमः । जीवेषु दयालुताऽनुकम्पा । अर्थात्-धर्म और धर्म के फल में उत्कृष्ट प्रीति अर्थात् अनुराग संवेग गुण है । सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्रमें और इनके धारण करने वालों में भक्ति का होना सो भक्ति गुण है। रागादि अर्थात् क्रोध-मान-माया-लोभ कषाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664