Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१४८८ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान — प्रवचनसारं गाथा ७७ में कथन शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से है । शुद्ध निश्चयनय का विषय पुण्य-पाप से रहित परमात्म जीव द्रव्य है । किन्तु श्रशुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा भेद है । इस गाथा की टीका में कहा भी है
'द्रव्यपुण्यपापयोर्व्यवहारेण भेदः, भावपुण्यपापयोस्तत्फलभूत सुखदुःखयोश्चाशुद्ध निश्चयेन भेदः । शुद्ध निश्चयेन तु शुद्धात्मनो भिन्नत्वात् भेदो नास्ति ।'
अर्थ-व्यवहारनय से द्रव्य पुण्य-पाप में उनके फल सुख-दुःख में भी भेद है। पुण्य और पाप दोनों ही पुण्य और पाप इन दोनों में भेद नहीं है ।
भेद है । अशुद्ध निश्चयनय से भाव पुण्य-पाप में भेद है और शुद्ध आत्मा से भिन्न हैं इसलिये शुद्ध- निश्चय नय से
इस कथन से टीकाकार ने स्पष्ट कर दिया है कि पुण्य और पाप में भेद भी है और श्रभेद भी है, सर्वथा समान नहीं हैं । यद्यपि पुण्य शुद्धात्मा का स्वरूप नहीं है, तथापि शुद्धात्म-प्राप्ति में सहकारी अवश्य है । क्योंकि जिसके द्वारा श्रात्मा पवित्र होती है वह पुण्य है ।
(११) 'अष्टपाहुड' की अपेक्षा पुण्य-पाप विचार
शंका- 'भावप्राभूत' गाथा ८१ व ८२ में बतलाया गया है कि जिससे सांसारिक सुख की प्राप्ति होती है, वह पुण्य है और जिससे कर्मक्षय होकर मोक्ष मिलता है, वह धर्म है। इससे यह स्पष्ट है कि पुण्य या शुभोपयोग मोक्ष का कारण नहीं है। ( देखो जैन संदेश २४-११-६६ )
समाधान - 'भावप्राभृत' गाथा ८१ इस प्रकार है
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पूयादिसु वयसहियं पुष्णं हि जितेहि सासरते भणियं । मोहक्खहविहीणी परिणामो अप्पणो धम्मो ॥ ८१ ॥
इस गाथा में श्रात्मा के मोह व क्षोभ से रहित परिणामों को धर्म की संज्ञा दी है । 'प्रवचनसार' गाथा ७वीं में भी यही कहा है कि चरित्र वास्तव में धर्म है, जो दर्शनमोहनीय कर्म और चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले मोह और क्षोभ से रहित प्रात्मा का अत्यन्त निर्विकार परिणाम है। आत्मा के यह मोह-क्षोभ से रहित अत्यन्त निर्विकार परिणाम क्षीणमोह नामक बारहवें गुरणस्थान में होता है, क्योंकि समस्त मोहनीय कर्म का क्षय (नाश) बारहवें गुणस्थान में होता है अर्थात् बारहवें गुणस्थान में क्षायिक चारित्ररूप धर्म होता है । बारहवें गुणस्थान से अधस्तन गुणस्थानों में रत्नत्रय है उसको 'भावपाहुड' की गाथा ८ में पुण्य की संज्ञा दी है। क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय दसवें गुणस्थान तक रत्नत्रय से पुण्यबन्ध होता है । यद्यपि दसवें गुणस्थान तक रत्नत्रय से होता है तथापि वह रत्नत्रय इस जीव को संसार के दुःखों से निकालकर उत्तम सुख में धरता है, वह भी धर्म है । इसीलिए श्री पद्मनन्दि आचार्य ने धर्म की व्याख्या इस प्रकार की है
धर्मो जीवदया गृहस्थय मिनोर्भेदाद्विधा च त्रयं । रत्नानि परम तथा दशविधोत्कृष्टक्षमा विस्ततः ॥
मोहोभूत विकल्पजालरहिता वागङ्गसंगोज्झिता ।
शुद्धानन्दमयात्मनः परिणतिर्धर्माख्यया गीयते ॥ १|७|| (पद्मनन्दि पंचविंशति )
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पुण्य
बंध
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