Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 613
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४७७ सम्यग्दर्शन से निर्जरा भी होती है और वह सुगति के बन्ध का कारण भी है। श्री समन्तभद्राचार्य ने सम्यग्दर्शन का फल वर्णन करते हए 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' में कहा है कि सम्यग्दर्शन के प्रभाव से जीव नरक, तिर्यच गति को, नपुसक और स्त्री पर्याय को तथा निंद्य कुल को, अङ्गों की विकलता को, अल्पायु तथा दरिद्रता को प्राप्त नहीं होता किन्तु देवेन्द्र, चक्रवर्ती तथा तीर्थंकर पद को प्राप्त होता है। नव-निधि-सप्तद्वय-रत्नाधीशाः सर्वभूमिपतयश्चक्रम् । वर्तयितु प्रभवन्ति स्पष्ट दृशः क्षत्रमौलिशेख रचरणाः ॥३८॥ अमराऽसुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्च नूतपादाऽम्भोजाः । दृष्टया सनिश्चितार्था वषचक्रधरा भवन्ति लोक-शरण्याः ॥३९॥ अर्थ-जो निर्मल सम्यग्दर्शन के धारक हैं वे नवनिधियों तथा चौदह रत्नों के स्वामी और षट्खंड के अधिपति होते हैं, चक्ररत्न को प्रवर्तित करने में समर्थ होते हैं और उनके चरणों में राजाओं के मुकुट-शेखर झुकते हैं अर्थात् मुकुटबद्ध राजा उन्हें सदा प्रणाम किया करते हैं। वे धर्मचक्र के धारक तीर्थकर होते हैं जिनकी देवेन्द्र, असुरेन्द्र, नरेन्द्र तथा गणधर स्तुति करते हैं और जो लौकिक जनों के लिये शरणभूत होते हैं। श्री समन्तभद्र आचार्य के उपर्युक्त कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सम्यग्दर्शन से वह पुण्य-बंध होता है जिसके फलस्वरूप चक्रवर्ती, देवेन्द्र, तीर्थंकर आदि पद प्राप्त होते हैं, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव इस प्रकार का पुण्यकर्मबंध नहीं कर सकता जिसका फल चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि पद हो। 'धवल' पु० ८ तथा 'तत्त्वार्थसूत्र' आदि सभी आर्ष ग्रन्थों में दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओं को तीर्थंकरप्रकृति के बंध का कारण बतलाया है। श्री भास्करनन्दि आचार्य ने दर्शन विशुद्धि की व्याख्या करते हुए लिखा है 'दर्शनं तत्त्वार्थ-श्रद्धानलक्षणं प्रागुक्तम् । तस्य विशुद्धिः सर्वातिचारविनिमुक्तिरुच्यते। दर्शनस्य विशुद्धिदर्शनविशुद्धिः ।' अर्थ-दर्शन का लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान है। जो सम्यग्दर्शन सर्व अतिचारों से रहित है वह विशुद्ध सम्यग्दर्शन होता है । सम्यग्दर्शन की विशुद्धि दर्शनविशुद्धि है। यह दर्शनविशुद्धि यद्यपि मोक्ष का कारण है, क्योंकि इसके बिना सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र नहीं होता तथापि तीर्थंकरप्रकृति के बंध का मुख्य कारण है । 'सुखबोध-तत्त्वार्थवृत्ति' में कहा भी है 'दर्शनविशुद्धिसहितानि तीर्थकरत्वस्य नाम्नस्त्रिजगदाधिपत्यफलस्यास्रव-कारणानि भवन्ति । तत एव दर्शनविशुद्धिः प्रथममुपात्ता प्राधान्यख्यापनार्थ तदभावे तदनुपपत्तेः ।' अर्थ-ये सोलह भावनाएँ पृथक्-पृथक् भी दर्शनविशुद्धि से सहित, तीन जगत् के अधिपतिरूप फलवाली तीर्थकरप्रकृति के प्रास्रव का कारण होती हैं । दर्शनविशुद्धि तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का प्रधान कारण है। क्योंकि दर्शनविशुद्धि के अभाव में तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध नहीं होता। इसलिये सोलह कारण भावनाओं में दर्शन विशुद्धि को प्रथम कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664