Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 611
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४७५ 'अरहंतणमोकारो संपहिय बंधादो असंखेज्जगुणकम्मक्खयकारओ त्ति तत्य वि मुणीणं पवृत्तिप्पसंगावो । उक्त च अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयडमदी । सो सम्वदुक्खमोक्खं पावs अचिरेण कालेण ॥ ( जयधवल पु. १ पृ. ९ ) --- अर्थ - प्ररहंत - नमस्कार तत्कालीन बन्ध की अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा का कारण है, उसमें भी मुनियों की प्रवृत्ति प्राप्त होती है। कहा भी है- जो विवेकी जीव भावपूर्वक अरहंत को नमस्कार करता है वह प्रतिशीघ्र समस्त दुखों से मुक्त हो जाता है अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होता है । यही बात श्री पं० कैलाशचन्द्रजी व पं० फूलचन्द्रजी ने 'जयधवला' में लिखी है । यद्यपि अरहंत नमस्कार से कुछ बंध भी होता है तथापि उस बंध की अपेक्षा कर्म-निर्जरा असंख्यातगुणी है, इसीलिये अरहंत- नमस्कार करनेवाला प्रति शीघ्र मोक्ष को प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार एक ही परिणाम के बन्ध और निर्जरा दोनों कार्य होते हैं तथा मोक्ष भी होता है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने 'दर्शनपाहुड़' में कहा है सेयासेयविद उद्धवस्सील सीलवंतो वि । सीलफलेणभुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं ॥१६॥ अर्थ -- श्रय और प्रश्रय को जाननेवाला मिथ्यात्व को नष्ट करके सम्यग्दृष्टि हो जाता है । सम्यग्दर्शन के फलस्वरूप अभ्युदयसुख पाकर फिर मोक्षसुख पाता है । यद्यपि सम्यक्त्व मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी है तथापि वह भी बन्ध का कारण है। श्री उमास्वामि आचार्य 'तत्त्वार्थ सूत्र' अध्याय ६ में लिखते हैं " सम्यक्त्वं च ॥ २१ ॥ " अर्थात् सम्यग्दर्शन देवायु के बन्ध का कारण है । इस 'तस्वार्थसूत्र' पर भी पूज्यपाद आचार्य विरचित सर्वार्थसिद्धि टीका है । उसमें लिखा है । 'किम् ? देवस्यायुष आलव इत्यनुवर्तते, ' अर्थ इस प्रकार है शंका- सम्यक्त्व क्या है ? समाधान- देवायु का आस्रव है । इस पद की पूर्व सूत्र से अनुवृत्ति होती है । यही बात श्री अकलंकदेव ने 'राजवार्तिक' टीका में कही है । श्री श्रुतसागर आचार्य 'तत्वार्थवृत्ति' में कहते हैं Jain Education International 'सम्यक्त्वं तत्त्व श्रद्धानलक्षणं देवायुरात्रवकारणं भवति ।' अर्थ -- तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण रूप सम्यग्दर्शन देवायु के प्रास्रव का कारण है। इसी सूत्र की टीका में श्री विद्यानन्द आचार्य 'श्लोकवातिक' में लिखते हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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