Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १४८३
को और की गई धर्म प्रभावना को जान लेता है । वह सम्यग्दृष्टि देव पुनः अपने मनमें उसी धर्म का श्रद्धान करता है जिस धर्म के प्रभाव से वह देव हुआ था और नन्दीश्वर द्वीप आदि में जिन प्रतिमानों की वंदना करता है । इस प्रकार वह स्वर्ग में बहुत काल तक अनेक प्रकार के सुन्दर भोगों को भोगता है और आयु पूर्ण होने पर च्युत होकर इस मनुष्य लोक में उत्पन्न होता है । बहु-जन- माननीय महत्वशाली, धनवान् कुल में उत्पन्न होता है और बहुत सुन्दर शरीर तथा बल, ऋद्धि, यौवन आदि से परिपूर्ण होता है । मनुष्यलोक में भी सर्वोत्कृष्ट अनुपम तथा नाना प्रकार के भोगों का भोग करके विरक्त हो संयम धारण कर लेता है। यदि चिरकाल के संचित किये हुए पुण्यकर्मोदय से चरमशरीरी हुआ तो शुद्ध यथाख्यात चारित्र को धारण करके केवलज्ञान को प्राप्त कर नियम से सिद्ध होता है । इस कथन से यह सिद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टि का पुण्य मोक्ष का कारण होता है, यह जानकर गृहस्थ को यत्नपूर्वक पुण्य उपार्जन करते रहना चाहिए ॥ ४३४ ॥
'निश्चयसम्यक्त्वस्याभावे यदा तु सरागसम्यक्त्वेन परिणमति तदा शुद्धात्मानमुपादेयं कृत्वा परम्परया निर्वाणकारणस्य तीर्थंकरप्रकृत्या दि-प व्यपदार्थस्यापि कर्ता भवति ।' ( समयसार पृ० १८६ )
अर्थ - निश्चयसम्यग्दर्शन के अभाव में जब सराग सम्यक्त्व को धारण करता है तब शुद्धात्मा को उपादेय करके परंपरा मोक्ष के कारणभूत तीर्थंकर आदि पुण्यकर्मों को बाँधता है ।
अनुप्रेक्षा इमाः सद्भिः, सर्वदा हृदये धृताः ।
कुर्वते तत्परं प ुण्यं हेतुर्यत्स्वर्गमोक्षयोः || ६ | ५८ || ( प. प. वि. )
अर्थ- सज्जनों के द्वारा सदा हृदय में धारण की गई ये बारह भावनाएँ उस उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन करती हैं जो स्वर्ग और मोक्ष का कारण होता है ।
विट्ठे तुमम्मि जिणवर चम्ममरणच्छिणा वि तं पुण्णं ।
जं जण पुरो केवल सणणाणाई गयणाई || १४ | १६ | | ( प. पं. वि. )
अर्थ - हे जिनेन्द्र ! चर्ममय नेत्र से भी आपका दर्शन होने पर वह पुण्य प्राप्त होता है, जो भविष्य में केवल दर्शन और केवलज्ञान को उत्पन्न करता है ।
'पुण्ण-कम्म-बंधत्थीर्ण बेसव्वयाणं मंगलकरणं जुत्तं, ण मुणीणं कम्मक्खयकंक्खुवाणमिदि ण व त्तु जुत्त पुण्णबंध-उत्त' पडि विसेसाभावादो, मंगलस्सेव सरागसंजमस्त वि परिच्चागप्पसगादो । ण च एवं तेण संजमपरिच्चापसंग भावेण णिव्वुइ-गमणाभावप्यसंगादो ||' ( जयधवल पु० १, पृ० ८ )
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अर्थ-यदि कहा जाय कि पुण्यकर्म बाँधने के इच्छुक देशव्रतियों को मंगल करना युक्त है, किन्तु कर्मों के क्षय के इच्छुक मुनियों को मंगल करना युक्त नहीं है ? सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पुण्यबंध के कारणों के प्रति देशव्रती और मुनि में कोई विशेषता नहीं है । अर्थात् पुण्य के बन्ध के कारणभूत कार्यों को जैसे देशव्रती करता है वैसे ही मुनि भी करता है । यदि ऐसा न माना जाय तो जिस प्रकार मुनियों को मंगल के परित्याग के लिये कहा जा रहा है, उसी प्रकार उनके सरागसंयम के भी परित्याग का प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि देशव्रत के समान सरागसंयम भी पुण्यबन्ध का कारण है । यदि कहा जाय कि मुनियों के सरागसंयम के परित्याग का प्रसंग प्राप्त होता है तो होने दो ? सो भी बात नहीं है, क्योंकि मुनियों के सरागसंयम के परित्याग का प्रसंग प्राप्त होने से उनके मुक्तिगमन के प्रभाव का भी प्रसंग प्राप्त होता है ।
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