Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 612
________________ १४७६ ] सम्यग्दृष्टेरनंतानुबंधि-क्रोधाद्यभावतः । जीवेष्वजीवता श्रद्धापायान्मिथ्यात्वहानितः ॥ ६॥ हिंसायास्तत्स्वभावाया निवृत्त ेः शुद्धिवृत्तितः । प्रकृष्टस्यायुषो देवस्यानवो न विरुध्यते ॥७॥ अर्थ - श्रनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों का प्रभाव हो जाने से, जीव में अजीव की श्रद्धा का नाश हो जाने से, मिध्यात्व चले जाने से, हिंसा और उसके स्वभाव का त्याग कर देने से और शुद्ध प्रवृत्ति से सम्यग्दष्टि के उत्कृष्ट देवायु का बन्ध होने में कोई बाधा नहीं है । श्री पूज्यपाद आदि सभी महानाचार्यों ने 'सम्यक्त्व से ही उत्कृष्ट देवायु का बन्ध होता है', ऐसा कहा है। इनमें से किसी भी प्राचार्य ने यह नहीं कहा कि मात्र राग से उत्कृष्ट देवायु का बन्ध होता है । यदि मात्र राग से उत्कृष्ट देवायु का बन्ध होने लगे तो 'सम्यक्त्वं च' यह सूत्र निरर्थक हो जायेगा । पंचास्तिकाय के टीकाकार ) ने भी 'तत्त्वार्थसार' में श्री अमृतचन्द्र आचार्य ( समयसार, प्रवचनसार, सम्यक्त्व आदि से देवायु के प्रास्रव का कथन किया है । सरागसंयतश्चैव, सम्यक्त्वं देशसंयमः । इति देवायुषो ह्यते भवन्त्यात्रवहेतवः ॥ ३४ ॥ अर्थ -- सरागसंयम, सम्यक्त्व और देशसंयम ये देवायु के प्रास्रव ( बन्ध ) के कारण हैं । [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इन्हीं सम्यग्दर्शन, देशसंयम और संयम को निर्जरा का कारण बतलाया गया है। श्री अमृतचन्द्र सूरि ने कहा भी है सम्यग्दर्शनसम्पन्नः संयतासंयतस्ततः । संयतस्तु ततोऽनन्तानुबन्धि- प्रवियोजकः ॥५५॥ मोक्षपकस्तस्मात्तथोपशमकस्ततः । उपशान्तकषायोऽतस्ततस्तु क्षपको मतः ॥ ५६ ॥ ततः क्षीणकषायस्तु घातिमुक्तस्ततो जिनः । दशैते क्रमतः सन्त्यसंङ ख्येयगुण निर्जराः ॥५७॥ यहाँ पर असंख्यातगुणी निर्जरा के दस स्थान बतलाये गये हैं । इनमें से प्रसंख्यातगुणी निर्जरा के प्रथम तीन स्थान सम्यक्त्व, देश संयम और संयत के हैं । Jain Education International इस प्रकार सम्यग्दर्शन आदि निर्जरा के कारण भी हैं और बंध के कारण भी हैं। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने 'रयणसार' में और 'दर्शन- पाहुड' में कहा है कि सम्यग्दर्शन से सुगति प्राप्त होती है सम्मत्तगुणाइ सुग्गइ मिच्छादो होइ दुग्गई णियमा । sa जाण किमिह वहुणा जं ते रुचेइ तं कुणहो ॥ ६६ ॥ अर्थात् - सम्यक्त्व गुरण से इन्द्र, चक्रवर्ती आदि सुगति नियम से मिलती है और मिथ्यात्व से नरकादि दुर्गति मिलती है । ऐसा जानकर जो तुमको रुचे सो करो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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