Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
वह नहीं मिला इसलिए इस ग्रन्थ के साथ प्रकाशित नहीं हो सका । यदि कोई सज्जन शुद्धिपत्र बनाकर श्री ब्र० लाड़लजी के पास भेजने का कष्ट करें तो वह शुद्धिपत्र प्रकाशित हो सकता है ।
- जै. ग. 15-3-73 / VI / ट. ला. जैन, मेरठ
शान्तिनाथपूजा के प्रथम छन्द का अर्थ
शंका- श्री पं० वृन्दावनकृत भगवान शांतिनाथपूजा के इस प्रथमछंद का क्या अर्थ है
या भव कानन में चतुरानन, पाप पनानन घेरि हमेरी । आतम जानन मानन ठानन, वानन होन दई सठ मेरी ॥ तामद भानन आप ही हो यह, छानन आन न आनन देरी । आन गही शरनागत को, अब श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ॥
समाधान — इस छन्द का भाव इसप्रकार हो सकता है— इस संसाररूप वन में चारों ओर पापरूपी सिंह ने मुझे घेर रखा है। इस शठ ( पापी ) ने श्रात्मा का जानना, मानना और श्राचरण ( ज्ञान, दर्शन, चारित्र ) नहीं होने दिया । उस शठ के मद को चूर करने में आपही समर्थ हो अन्य कोई समर्थ नहीं है । ऊहापोह कर मैंने यह निश्चय कर लिया है। अतः आपके सन्मुख पुकार कर रहा हूँ और अब आपकी शरण ग्रहण करली है । हे श्रीपतिजी श्राप मेरी टेव ( बात ) को राखो ।
- जै. ग. 17-11-77 / VIII / पं. नंदनलाल
'च कर्म की त्रेसठ प्रकृति नाशि' का अर्थ
शंका- चार घातिया कर्मों की ४७ प्रकृतियाँ होती हैं। किन्तु पूजन में 'चउकर्म की त्रेसठ प्रकृति नाश' क्यों कहा है ?
समाधान-कर्म की कुल १४८ प्रकृतियाँ फलदान की अपेक्षा निम्नलिखित चारप्रकारों में विभक्त की गई हैं । १. जीव विपाकी, २. पुद्गल विपाकी, ३. भवविपाकी, ४. क्षेत्र विपाकी ।
जीवविपाकी ७८ प्रकृतियाँ - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, ५ अंतरायकर्म, २८ मोहनीयकर्म, नामकर्म की २७ तीर्थंकर प्रकृति, उच्छ्वास, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशः कीर्ति, अयश: कीर्ति, त्रस, स्थावर, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, सुभग, दुभंग, गति ४, जाति ५, २ गोत्रकर्म, २ वेदनीय कर्म |
पुद्गलविपाकी ६२ प्रकृतियाँ - ५ शरीर, ३ अंगोपांग, १ निर्माण, ५ बन्धन, ५ संघात, ६ संस्थान, ६ संहनन, ५ वर्ण, ५ रस, ८ स्पर्श, २ गंध, १ अगुरुलघु, १ उपघात, १ परघात, १ आतप १ उद्योत, १ प्रत्येक, १ साधारण १ स्थिर, १ अस्थिर, १ शुभ, १ अशुभ ।
Hafaint ४ प्रकृतियाँ - नरकायु, तियं चायु, मनुष्यायु, देवायु ।
क्षेत्रविपाकी ४ प्रकृतियाँ - नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी ।
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