Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 581
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] छेदन-भेदन- मारणकर्षणवाणिज्य-वीर्यवचनादि । तत्सावयं यस्मात्प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते ॥९७॥ अर्थ- जो छेदन, भेदन, मारण, कर्षण ( खेती ) व्यापार चोरी आदि के वचन वे सब सावद्य वचन है, क्योंकि प्राणिहिंसा की प्रवृत्ति करते हैं। अरतिकरं भीतिकरं वेदकरं वंरशोककलहकरम् । यदपरमपि तापकरं परस्य तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम् ॥९८ ॥ अर्थ- जो वचन दूसरों को धरति का करने वाला हो, भय करने वाला हो, खेद करने वाला हो, वरशोक कलह का करने वाला हो तथा और भी आताप का करने वाला होवे वह सब अप्रिय वचन जानना । हेतौ प्रमत्तयोगे निविष्टे सकलवितथवचनानाम् । यानुष्ठानादेरनुवदनं Jain Education International भवति नासत्यम् ॥१००॥ [ १४४५ अर्थ- समस्त ही प्रसत्य वचनों का कारण प्रमत्तयोग कहा गया है, किन्तु हेय व कर्तव्य आदि के वचन असत्य नहीं है। इसप्रकार असत्यवचन का कथन है। सत्यवचन दस प्रकार का है जणवदसम्मदिठवणा णामे हवे पहुच्चववहारे । संभावले व भावे, उदमाए इसविहं सच्वं ॥२२२॥ भतं देवी चप्प पडिमा त हय होदि जिणदत्तो । सेदो दिग्धो रज्झदि कूरोति य जं हवे वयणं ॥ २२३ ॥ सक्को जंबूदीन पल्लदृदि पाववज्जवयणं च । पल्लोवमं च कमसो जणववसच्चादिदिता ॥ २२४ ॥ गो० जी० अर्थ - जनपदसत्य, सम्मतिसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहारसत्य, संभावनासत्य, भावसत्य, उपमासत्य इसप्रकार सत्य के दसभेद हैं । उक्त दसप्रकार के सत्यवचन के ये दस दृष्टान्त हैं । भक्त, देवी, चन्द्रप्रभप्रतिमा, जिनदत्त, श्वेत, दीर्घ, भात पकाया जाता है, शक्र (इंद्र) जम्बूद्वीप को पलट सकता है, 'यह प्रासुक है' ऐसा वचन और पत्योपम । 3 भावार्थ - तत् तत् देशवासी मनुष्यों के व्यवहार में जो शब्द रूढ़ हो रहा है उसको जनपदसत्य कहते हैं। जैसे भक्त, भाटु, वटक प्रादि भिन्न-भिन्न शब्दों से एक ही चीज को कहा जाता है। २. बहुत मनुष्यों की सम्मति से जो सर्व साधारण में रूढ़ हो उसको सम्मतिसत्य कहते हैं । जैसे पट्टराणी के अतिरिक्त किसी साधारण स्त्री को । ३ 1 भी देवी कह देना। ३. किसी वस्तु में उससे भिन्न वस्तु के जैसे श्री चन्द्रप्रभ भगवान की प्रतिमा को चन्द्रप्रभ कहना लिये जो किसी का संज्ञाकर्म करना इसको नामसत्य कहते हैं तथापि व्यवहार के लिये उसे जिनदत्त कहते हैं। ५. पुद्गल के रूपादिक अनेक वचन कहा जाय उसको रुपसत्य कहते हैं। जैसे किसी मनुष्य को श्वेत कहना। भी पाये जाते हैं। अथवा उसके शरीर में समारोप करने वाले वचन को स्थापनासत्य कहते हैं। दूसरी कोई अपेक्षा न रखकर केवल व्यवहार के जैसे जिनदत्त यद्यपि उसको जिनेन्द्र ने नहीं दिया गुणों में से रूप की प्रधानता से जो यद्यपि उसके शरीर में अन्य वर्ण रूपगुण की अपेक्षा उसको श्वेत रसादिक के रहने पर भी ऊपर से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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