Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१४४८ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
उप्पत्तीव विणासो दव्वस्स य णत्थि अस्थि सम्भावो । विगमुप्पादधुवत्त करेंति तस्सेव पज्जायाः ॥ ११ ॥ पं० का०
टीका - द्रव्यार्थार्पणायामनुत्पादमनुच्छेदं सत्स्वभावमेव द्रव्यम् । तदेव पर्यायार्थापणायां सोत्पादं सोच्छेदं चाववोद्धव्यम् ।'
द्रव्यदृष्टि से द्रव्य को उत्पादरहित, विनाशरहित सत्स्वभाववाला जानना चाहिए, किन्तु पर्यायदृष्टि से उत्पादवाला, विनाशवाला जानना चाहिए।
'ज्ञानावरणादिभावद्रव्यकर्मपर्यायाः सुष्ठु संश्लेषरूपेणानादिसंतानेन बद्धास्तिष्ठन्ति तावत्, यदा कालादिलब्धिवशाद्भ ेदाभेदरत्नत्रयात्मक व्यवहारनिश्चय मोक्षमार्ग लभते तदा तेषां ज्ञानावरणादि भावानां द्रव्य-भावकर्मरूपपर्यायाणामभागं विनाशं कृत्वा पर्यायार्थिकनयेना भूतपूर्णसिद्धो भवति, द्रव्यार्थिकनयेन पूर्णमेव सिद्धरूप इति वार्तिकम् ।' पं० का० गा० २०
इस संसारीजीव का अनादिप्रवाहरूप से ज्ञानावरणादि आठों कर्मों के साथ संश्लेषरूप बंध चला ना रहा | जब कोई भव्यजीव कालादिलब्धि के वश से भेदरत्नत्रयस्वरूप व्यवहारमोक्षमार्ग को और अभेदरत्नत्रयस्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग को प्राप्त करता है तब वह भव्यजीव उन ज्ञानावरणादिकर्मों की द्रव्य और भावरूप अवस्थानों का नाश करके पर्यायदृष्टि से सिद्धभगवान हो जाता है । वह सिद्धपर्याय पूर्व में कभी प्राप्त नहीं हुई थी, उस सिद्धपर्याय को प्राप्त कर लेता है । द्रव्यदृष्टि से तो पहिले से ही यह जीव स्वरूप से ही सिद्धरूप है अर्थात् द्रव्यदृष्टि में मोक्ष मार्ग सम्भव नहीं है ।
एकान्तपर्यायष्ट से बौद्धमतरूप दूषण आता है और एकान्त द्रव्यदृष्टि से सांख्यमतरूप दूषरण आता है। क्योंकि 'क्षणिकान्तरूपं बौद्धमतं नित्यैकान्तरूपं सांख्यमतं ।' ऐसा आर्षवचन है । 'जैनमते पुनः परस्परसापेक्षद्रव्यपर्यायत्वान्नास्ति दूषणं ।' किन्तु जैनमत में परस्पर सापेक्ष द्रव्यदृष्टि पर्यायदृष्टि मानने से कोई दूषण नहीं आता । 'यद्यपि शुद्ध निश्चयेन शुद्धोजीवस्तथापि पर्यायार्थिकनयेन कथंचित्परिणामित्वे सत्यनादिकर्मोदयवशाद्रागाद्युपाधिपरिणामं गृह्णाति स्फटिकवत् । यदि पुनरेकांतेनापरिणामी भवति तदोपाधि परिणामो न घटते ।'
-- अजमेर से प्रकाशित समयसार पृ० ३०१ ।
यद्यपि शुद्ध निश्चयन से जीव शुद्ध है फिर भी पर्यायदृष्टि से कथंचित् परिणामीपना होने पर अनादिकाल से धारा प्रवाहरूप से चले आये कर्मोदय के वश से यह जीव स्फटिक पाषाण के समान ही रागादिरूप उपाधि परिणाम को ग्रहण करता है । यदि द्रव्यदृष्टि के एकान्त से यह जीव अपरिणामी ही हो तो इस जीव के रागादि उपाधिरूप परिणाम कभी घटित नहीं हो सकता है । जब एकान्त द्रव्यदृष्टि में इस जीव के रागादिपरिणाम घटित नहीं हो सकते तो मोक्ष भी घटित नहीं हो सकता ।
'पर्यायाथिकनविभागैर्देवमनुष्यादिरूपं विनश्यति जीवः । न नश्यति कैश्चिद्रव्यार्थिक नयविभागः । यस्मावेगं नित्यानित्यस्वभागं जीवरूपं ।'
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यह जीव पर्यायदृष्टि से देव, मनुष्यादि पर्यायों के द्वारा विनाश को प्राप्त होता है । द्रव्यदृष्टि से जीव नाश को प्राप्त नहीं होता है । इसप्रकार जीव नित्य, अनित्य स्वभाववाला है । द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य अपरिणामी है और पर्याय से अनित्य परिणामी है । जो एकान्त से जीव को नित्य अपरिणामी मानते हैं वे सांख्यमतवालों के समान मिथ्यादृष्टि हैं ।
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