Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 591
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] एवमभिगम्म जीवं अपेहि वि पज्जएहि बहुगेहि । अभिगच्छ अज्जीवं गाणंतरिदेहि लिंगेहि ॥ १२३ ॥ पंचास्तिकाय इसप्रकार अन्य भी बहुत सी पर्यायों द्वारा जीव को जानकर, ज्ञान से अन्य ऐसे जड़ लिंग द्वारा अजीवपदार्थ को जानो । [ १४५५ यदि द्रव्यष्टि सम्यग्दृष्टि तथा पर्यायदृष्टि मिथ्यादृष्टि ऐसा सिद्धांत होता तो श्री कुन्दकुन्दाचार्य मोक्षमार्गप्ररूपक अधिकार में जीवपदार्थ का पर्यायों की अपेक्षा क्यों कथन करते ? श्री अमृतचन्द्राचार्य 'बहुभिः पर्यायः जीवमधिगच्छेत् ।' अर्थात् बहुपर्यायों द्वारा जीव को जानो ऐसी आज्ञा क्यों देते ? दृष्टि सो सम्यग्दृष्टि । पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है। जिसकी मात्र सामान्य पर दृष्टि है विशेष (पर्याय) पर दृष्टि नहीं है, वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है । २७ मई १९७१ के 'जैनसन्देश' के सम्पादकीय लेख में जो प्रवचनसार का उल्लेख है अब उस पर विचार किया जाता है । उक्त सम्पादकीय लेख में प्रवचनसार गाथा १८९ की टीका का कुछ भाग उद्धृत किया गया है, किन्तु इस टीका का द्रव्यदृष्टि या पर्यायदृष्टि से कोई सम्बन्ध नहीं है और न इस टीका का मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि से कोई सम्बन्ध है । वह टीका इसप्रकार है 'रागादिपरिणाम एवात्मनः कर्म, स एव पुण्यपापद्व तम् । रागपरिणामस्यैवात्मा कर्त्ता तस्यैवोपादाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्य निरूपणात्मको निश्चयनयः यस्तु पुद्गल परिणाम आत्मनः कर्म स एव पुण्यपापद्वं तं पुद्गलपरिणामस्यात्मा कर्ता तस्योपादाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको व्यवहारनयः । उभावप्येतौ स्तः, शुद्धाशुद्धत्वेनोभयथा द्रव्यस्य प्रतीयमानत्वात् । किन्त्वव निश्चयनयः साधकतमत्वादुपात्तः, साध्यस्य हि शुद्धत्वेन द्रव्यव्य शुद्धत्वstartarfarartय एव साधकतमो न पुनरशुद्धत्वद्योतको व्यवहारनयः ॥ १८९ ॥ ' प्रवचनसार यहाँ पर रागादि परिणामों को आत्मा के कर्म और श्रात्मा उन रागादि का कर्त्ता आदि है ऐसा कथन करनेवाले नय को शुद्धद्रव्य का निरूपण करनेवाला निश्चयनय कहा है। पौद्गलिककर्म आत्मा के कर्म और आत्मा उन पौद्गलिककर्मों का कर्ता आदि है ऐसा कथन करनेवाले नय को अशुद्धद्रव्य का निरूपण करनेवाला व्यवहारनय कहा है । यहाँ पर 'शुद्धद्रव्य व निश्चयनय तथा अशुद्धद्रव्य व व्यवहारनय' ये शब्द किस अभिप्राय से प्रयोग किए गए हैं, इसको समझने के लिए अध्यात्मनयों के स्वरूप का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है । अध्यात्मनयों का कथन इसप्रकार है Jain Education International 'पुनरप्यध्यात्म भाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयौ द्वौ निश्चयो व्यवहारश्च ॥ तत्र निश्चयनयोऽभेदविषयो, व्यवहारो भवविषयः ॥ तत्र निश्चयो द्विविधः शुद्ध निश्चयोऽशुद्ध निश्चयश्च ॥ तत्र निरुपाधिकगुणगुण्य भेदविषयकः शुद्ध निश्चयो यथा केवलज्ञानादयो जीव इति ॥ सोपाधिक विषयोऽशुद्ध निश्चयो यथा मतिज्ञानावयो जीव इति ।। व्यवहारो द्विविधः सन् तव्यवहारोऽसद्ध तव्यवहारश्च ॥ तत्रैकवस्तुविषयः सद्भूतव्यवहारः ॥ भिन्न वस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहारः ॥' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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