Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 604
________________ १४६८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ - जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होता है, वह पुण्य है, जैसे सातावेदनीय आदि । 'तत्त्वार्थ सूत्र' के छठे अध्याय के सूत्र तीन में पाप व पुण्यकर्म के आस्रव का कथन है । इस सूत्र की 'सर्वार्थसिद्धि' टीका में श्री पूज्यपाद महानाचार्य ने सातावेदनीय आदि पुण्य कर्मों के द्वारा आत्मा पवित्र होता है, ऐसा उपर्युक्त वाक्य में स्पष्ट रूपसे कथन किया है। इस पर शंका स्वाभाविक है कि पुद्गल कर्म तो बंध-रूप है । वह आत्मा की पवित्रता का कैसे कारण हो सकता है ? किन्तु यह शंका ठीक नहीं है । क्योंकि पुण्योदय के बिना मोक्षमार्ग के योग्य ( उत्तम संहनन, उच्चगोत्र प्रादि ) सामग्री नहीं मिल सकती। इसलिये आर्ष ग्रन्थों में पुण्यकर्म को मोक्षप्राप्ति में सहकारी कारण बतलाया है । 'मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशय- चारित्र विशेषात्मक पौरुषाभ्यामेव संभवात् । ' ( अष्टसहस्त्री पृ० २५७ ) अर्थ - परम पुण्य के प्रतिशय से तथा चारित्र रूप पुरुषार्थं से ( इन दोनों से) मोक्ष की प्राप्ति होती है । यहाँ पर श्री विद्यानन्द महान् तार्किक प्राचार्य ने यह बतलाया है कि मोक्ष मात्र रत्नत्रय से ही नहीं प्राप्त होता किन्तु रत्नत्रय रूपी पुरुषार्थ को परम पुण्यकर्मोदय की सहकारिता की भी आवश्यकता है। इस प्रकार पुण्यकर्म भी मोक्ष प्राप्ति में अत्यन्त उपयोगी है । यही बात श्री कुन्दकुन्द आचार्य कृत 'पंचास्तिकाय' गाथा ८५ की टीका में भी कही गयी है - 'यथा रागादि दोष रहितः शुद्धात्मानुभूति सहितो निश्चय धर्मो यद्यपि सिद्धगतेरुपादानकारणं भव्यानां भवति तथापि निदान - रहित परिणामोपार्जित तीर्थंकर प्रकृत्युत्तम संहननादि - विशिष्टपुष्यरूपकर्मापि सहकारी कारणं भवति, तथा यद्यपि जीवपुद्गलानां गतिपरिणतेः स्वकीयोपादानकारणमस्ति तथापि धर्मास्तिकायोऽपि सहकारी कारणं भवति ।' अर्थ - जिस प्रकार रागादि दोष रहित शुद्धात्मानुभूति रूप निश्चयधर्म भव्यों को सिद्धगति के लिये यद्यपि उपादान कारण है तथापि निदान - रहित परिणामों से उपार्जित तीर्थंकर प्रकृति, उत्तम संहनन आदि विशिष्ट पुण्यकर्म भी सिद्धगति के लिये सहकारी कारण हैं, ( यदि विशिष्ट पुण्यकर्म की सहकारिता न हो तो भव्य जीव सिद्धगति को प्राप्त नहीं हो सकते ) उसी प्रकार गतिपरिणत जीव पुद्गल, अपनी-अपनी गति के लिये, यद्यपि स्वयं उपादान कारण तथापि उस गति में धर्मद्रव्य सहकारी कारण होता है अर्थात् धर्मद्रव्य के बिना जीव श्रौर पुद्गलों की गति नहीं हो सकती, जैसे ऊर्ध्वगमन स्वभावी सिद्ध जीव भी लोक के अन्त तक ही गमन करते हैं, क्योंकि उसके आगे धर्मद्रव्य का अभाव है । उत्तम संहनन आदि विशिष्ट पुण्यकर्मोदय के बिना आज तक कोई भी जीव मोक्ष नहीं गया और न जा सकता है । इसलिये मोक्ष के लिये पुण्यकर्म सहकारी कारण है । 'मूलाचार प्रदीप' पृ० २०० पर भी कहा है 'पुण्य - प्रकृतयस्तीर्थ पदादि- सुख-खानयः ।' अर्थात् - ये पुण्यकर्म प्रकृतियाँ तीर्थंकर आदि पदों के सुख देने वाली 1 पुण्यात् सुरासुरनरोरगभोगसाराः श्रीरायुरप्रमितरूपसमृद्धयो गीः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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