Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
इस पर्यायष्टि को रखते हुए भी वज्रनाभिचक्रवर्ती मिथ्यादृष्टि नहीं हुए।
'पर्यायदृष्टि मिथ्यादृष्टि' यदि इस सिद्धांत को मान लिया जाय तो अनित्य, अशरण, संसार, अशुचि आदि भावनाओं का श्रद्धान करनेवालों के मिथ्यात्व का प्रसंग आ जायगा, क्योंकि ये भावना पर्याय दृष्टि की अपेक्षा से सम्भव है, द्रव्यदृष्टि की अपेक्षा से अनित्य प्रादि भावना सम्भव नहीं है, क्योंकि द्रव्यदृष्टि में नित्यता स्वीकार की गई है।
राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार ।। दल बल देई देवता, मात पिता परिवार । मरती विरियाँ जीव को, कोई न राखन हार ॥ दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णावश धनवान ।
कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ।। इसप्रकार पर्याय दृष्टि से श्रद्धा करनेवाला मिथ्यादृष्टि नहीं है अपितु सम्यग्दृष्टि है ।
सामायिकपाठ में अपने दोषों की पर्यायष्टि से निम्नप्रकार आलोचना करनेवाला मिथ्याष्टि नहीं हो सकता, वह तो सम्यग्दृष्टि है।
हा हा ! मैं दृठ अपराधी, त्रस जीवन राशि विराधी।
थावर की जतन न कीनी, उर में करुणा नहीं लीनी ॥ २७ मई १९७१ के जैनसन्देश के सम्पादकीय लेख में निम्न श्लोक उद्धृत किया गया है।
एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिर्मलः साधिगम स्वभावः । बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ता, न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः ॥
सामायिकपाठ के इस श्लोक में यह नहीं कहा गया कि द्रव्यदृष्टि सो सम्यग्दृष्टि और पर्यायष्टि सो मिथ्यादृष्टि । यहाँ पर यह बतलाया गया है कि मेरी प्रात्मा एक है और सदा शाश्वत है। यह द्रव्यदृष्टि से कथन है। मेरी आत्मा निर्मल और साधिगम है, यह स्वभावदृष्टि से कथन है। कर्मजनित प्रौपाधिक भाव मेरे स्वभाव नहीं हैं और नाशवान हैं यह विभावपर्यायदृष्टि से कथन है ।
यहाँ पर द्रव्यदृष्टि से आत्मा को सदा शाश्वत अर्थात अनादि अनन्त बतलाया गया है। प्रात्मा-अनादिकाल से कर्मों से बँधी हुई है अतः शुद्ध नहीं है । अतः द्रव्याथिकनय का विषय शुद्ध या अशुद्धात्मा नहीं है, किन्तु शद्ध व अशुद्ध विशेषणों रहित सामान्य प्रात्मा है। श्रीदेवसेन आचार्य ने आलापपद्धति में कहा भी है
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'निजनिजप्रदेशसमूहैरखण्डवृत्या स्वभावविभावपर्यायान् द्रवति द्रोष्यति अदुद्र वविति द्रव्यम् ।' जो अपनेअपने प्रदेश समूह के द्वारा अखण्डपने से अपनी-अपनी स्वभाव-विभावपर्यायों को प्राप्त होता है, होवेगा और हो चुका है वह द्रव्य है।
यदि द्रव्यदृष्टि का विषय शुद्धद्रव्य माना जाय तो वह विभावपर्यायों को प्राप्त नहीं हो सकता। अतः द्रव्यदृष्टि का विषय, शुद्धाशुद्ध विशेषणों से रहित सामान्य प्रात्मा है। .
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