Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 585
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४४९ 'स जीवो मिथ्यावृष्टिरनाहतो ज्ञातव्यम् । कथं मिथ्यावृष्टिः ? इति चेत् यदेकांतेन नित्यकूटस्थोऽपरिणामी टंकोत्कीर्णः सांख्यमतवत् ।' जो एकांत द्रव्यदृष्टि से जीव को नित्य कूटस्थ अपरिणामी और टंकोत्कीर्ण मानता है तो वह सांख्यमतवालों के समान मिथ्यादृष्टि है, अहंतमत का माननेवाला नहीं है। यद्यपि द्रव्यदृष्टि से सर्व जीव एक समान हैं उनमें कोई भेद नहीं है तथापि पर्यायष्टि से जीव तीन प्रकार के हैं । श्री कुन्दकुन्दाचार्य मोक्षप्राभृत में कहते हैं तिपयारो सो अप्पा परमंतर बाहिरो दु देहीणं । तस्थ परोझाइज्जइ अंतोबाएण चयहि वहिरप्पा ॥४॥ मोक्षप्राभूत बहिरन्तः परश्चेति विधात्मा सर्वदेहिषु । उपेयात्तत्र परमं मध्योपायात बहिस्त्यजेत् ॥४॥ समाधि तन्त्र सर्व प्राणियों में बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा इस तरह तीनप्रकार का प्रात्मा है। प्रात्मा के उन तीन भेदों ( पर्यायों ) में से बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा अवस्था का ध्यान करो। उस परमात्मारूप पर्याय के ध्यान से जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है। तं सव्वस्थवरिट, इ8 अमरासुरप्पहाणेहि । ये सद्दहति जीवा, तेसि दुक्खाणि खीयंति ॥१९-१॥ प्रवचनसार 'एवं निर्दोष परमात्मश्रद्धानान्मोक्षो भवतीति कथनरूपेण तृतीयस्थले गाथा गता।' स्वर्गवासी देव तथा भवनत्रिक के इन्द्रों से पूजनीय और सर्व पदार्थों में श्रेष्ठ ऐसे परमात्मा का जो भव्य जीव श्रद्धान करते हैं उनके सब दुःख नाश को प्राप्त हो जाते हैं। इसतरह निर्दोष परमात्मा के श्रद्धान से मोक्ष होती है, ऐसा कहते हुए तीसरे स्थल में गाथा पूर्ण हुई। परमात्माअवस्था जीव की पर्याय है, उस परमात्मपर्याय के श्रद्धान व ध्यान को मोक्षमार्ग बतलाया गया है। श्री अमृतचन्द्राचार्य का निम्न कलश भी दृष्टव्य है परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावा । दविरतमनुभाव्यव्याप्तकल्माषितायाः॥ मम परमविशुद्धिः शुद्ध चिन्मात्रमूर्ते र्भवतु समयसारव्याख्ययवानुभूतेः ॥ ३॥ श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं—यद्यपि शुद्धद्रव्यदृष्टि कर तो मैं शुद्ध हूँ चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ, परन्तु मेरी परिणति ( पर्याय ) मोहकर्म के उदय के कारण मैली रागादिरूप हो रही है । शुद्धात्मा की कथनीरूप जो यह समयसार प्रन्थ है, उसकी टीका करने का फल यह चाहता हूँ कि मेरी परिणति (पर्याय ) रागादि से रहित होकर शुद्ध हो अर्थात् मेरे शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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