Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१४४० ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थ — अपने-अपने भेदों से श्रनन्तभेदरूप रत्नत्रय ही देव है, अतएव रत्नत्रय से ( सम्यग्दर्शन - ज्ञान-चारित्र से ) युक्त जीव देव है । यदि रत्नत्रय की अपेक्षा देवपना न माना जावे तो सम्पूर्ण भव्यजीवों को देवपना प्राप्त होने की प्रापत्ति आ जायगी ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य भी प्रवचनसार में कहते हैं
'सहमाणो अत्थे असंजदा वा ण णिव्वादि '
पदार्थों का यथार्थ श्रद्धान करनेवाला अर्थात् सम्यग्दृष्टि यदि संयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता है ।
श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है
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'असंयतस्य च यथोदितात्मतत्त्वप्रतीतिरूपं श्रद्धानं यथोदितात्मतत्त्वानुभूतिरूपं ज्ञानं वा किं कुर्यात् ? ततः संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः । अतः आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेर्तव '
असंयत को, यथोक्त आत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान यथोक्त श्रात्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञान क्या करेगा ? अर्थात् कुछ नहीं करेगा अथवा कुछ कार्यकारी नहीं है । इसलिये संयमशून्य ( चारित्ररहित ) श्रद्धान-ज्ञानसे सिद्धि नहीं होती । श्रागमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व के अयुगपत्व के मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता । अर्थात् सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र की युगपत्ता ही मोक्षमार्ग है, मात्र सम्यग्दर्शन - ज्ञान मोक्षमार्ग नहीं है। जहां मोक्षमार्ग नहीं है वहां देवत्व भी नहीं है ।
चाण्डालपुत्र के चारित्र नहीं हो सकता, क्योंकि ऊंच वर्णवाला ही मुनिदीक्षा के योग्य है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा भी है
aujde ती एक्को कल्लागंगो तवोसहो वयसा । सुमुहो कुछारहिदो लिंगग्गहसे हवदि जोग्गो ॥
'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनवर्णों में से कोई एक वर्णधारी हो, जिसका शरीर रोग रहित हो, तपस्या को सहून करनेवाला हो, सुन्दर मुखवाला हो तथा लोकापवाद से रहित हो वह पुरुष जिनदीक्षा ग्रहण करने के योग्य होता है ।'
यदि कहा जाय कि चाण्डाल के द्रव्यचारित्र न हो, भावचारित्र तो हो सकता है, क्योंकि द्रव्यचारित्र शरीराश्रित है और भावचारित्र जीवाश्रित है । सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने सूत्रप्राभृत में कहा भी है
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णिच्चेलपाणिपत्त उवइट्ठ परम जिणवरदेहि ।
एक्को वि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे ॥१०॥
'तीर्थंकर परमदेव ने नग्नमुद्रा के धारी निर्ग्रन्थमुनि को ही पाणिपात्र में प्राहार लेने का उपदेश दिया है । यह एक निमुद्रा ही मोक्षमार्ग है, इसके अतिरिक्त शेष सब श्रमार्ग हैं मोक्षमार्ग नहीं है ।'
ण वि सिज्झइ वत्यधरो जिणसासले जइ वि होइ तित्थयरो । णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥ २३ ॥
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