Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : संयोजना सत्य का स्वरूप शंका-'संयोजना सत्य' का क्या स्वरूप है ?
समाधान-१४ पूर्वो में से छठा सत्यप्रवादपूर्व है उसमें दसप्रकार के सत्य का कथन है। उस दसप्रकार के सत्य में से छठा सत्य संयोजनासत्य है। इस संयोजना सत्य का स्वरूप धवलसिद्धांतग्रन्थ में निम्न प्रकार दिया है
'घुपचूर्णवासानुलेपनप्रघर्षादिषु पद्मकरहंससर्वतोभद्रक्रौञ्चव्युहादिषु इतरेतरद्रव्याणां यथाविभागसन्निवेशाविर्भावकं यद्वचस्तत्संयोजनासत्यम् ।'
अर्थ-धूप के सुगन्धी-चूर्ण के अनुलेपन और प्रघर्षण के समय, अथवा पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र और क्रौंचआदिरूप व्यूह रचना के समय सचेतन अथवा अचेतन द्रव्य के विभागानुसार विधिपूर्वक रचना प्रकाशक जो वचन वह संयोजनासत्य है। हरिवंशपुराण में संयोजनासत्य का स्वरूप निम्नप्रकार कहा है
चेतनाचेतनद्रव्यसन्निवेशा विभागकृत् ।
वचः संयोजना-सत्यं कौञ्चव्यूहादिगोचरम् ॥१०/१०३॥ श्री पं० पन्नालाल साहित्याचार्य कृत अर्थ
'जो चेतन-अचेतन द्रव्यों के विभाग को करनेवाला न हो उसे संयोजनासत्य कहते हैं। जैसे क्रौञ्चव्यूह आदि । भावार्थ-क्रौञ्चव्यूह, चक्रव्यूह आदि सेनाओं की रचना के प्रकार हैं और सेनाएँ चेतनाचेतन पदार्थों के समूह से बनती हैं, पर जहाँ अचेतन पदार्थों की विवक्षा न कर केवल क्रौञ्चाकार रची हुई सेना को क्रौञ्चव्यूह और चेतन पदार्थों की विवक्षा न कर केवल चक्र के प्राकार रची हुई सेना को चक्रव्यूह कह देते हैं; वहां संयोजना सत्य होता है।'
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ पर 'चेतन-अचेतन द्रव्यों के विभाग को करनेवाला न हो' इसका अभिप्राय है-'चेतन अचेतन द्रव्यों की विवक्षा करनेवाला न हो।' चेतन-अचेतन द्रव्यों का संकर करने वाला हो' ऐसा अभिप्राय न ग्रहण करना चाहिए।
-जं. सं. 16-7-70/रो. ला. जैन शुद्धोपयोग के गुणस्थान शंका-चौथे गुणस्थानवाले को जब शुद्धोपयोग होता है तो उसके उससमय किसी प्रकार का विचार होता है या नहीं ? यदि होता है तो क्या आत्मा को छोड़कर परव्रव्य का द्रव्यदृष्टि से विचार करते हुए भी उसके
खोपयोग हो सकता है या नहीं ? जितनी देर यह आत्मा का या परद्रव्य का द्रव्यदृष्टि से विचार करता है उतनी देर क्या नियम से शुद्धोपयोग होता ही है ?
समाधान-चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग नहीं होता है । यथार्थ शुद्धोपयोग तो अकषाय अवस्था में होता है जो ग्यारहवें आदि गुणस्थानों में होता है। उपशम व क्षपकश्रेणी में भी शुद्धोपयोग की मुख्यता है। उपचार से अप्रमत्त-सातवें गुणस्थान में भी शुद्धोपयोग कह दिया जाता है, क्योंकि वहाँ पर भी कषाय ( संज्वलन ) की
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