Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १४३१ मावों से पुग्य-पाप / निचली दशा में व्यवहारनय का उपदेश करने योग्य है
शंका-एक भूखे जीव को दुःखी देखकर खाने के लिये रोटी दे दी जावे। उस भूखे ने वह रोटी न खाकर उस रोटी से जानवरों को मारने का कार्य किया तो वह हिंसारूपी पाप किसको लगेगा?
समाधान-भूखे को रोटी देनेवाले ने तो रोटी देकर त्याग किया। त्याग आत्मा का स्वभाव है । दसधर्म में त्याग भी एक धर्म है। त्यागधर्म पापबन्ध का कारण नहीं हो सकता है। जिस भूखे ने रोटी स्वयं न खाकर उस रोटी द्वारा जीवघात का कार्य किया, उस भूखे को पाप लगेगा। यद्यपि निश्चयनय से जीव न मरता है और न दूसरों के द्वारा मारा जा सकता है, किन्तु व्यवहारनय से जीव मरता भी है और दूसरों के द्वारा मारा भी जाता है। यदि व्यवहारनय को सर्वथा असत्यार्थ माना जावे तो जैसे भस्म को मसल देने में हिंसा का अभाव है उसीप्रकार बस-स्थावर जीवों को निःशंकतया मसल देने में भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इस कारण बन्ध का ही प्रभाव सिद्ध होगा। बन्ध के अभाव में मोक्ष का भी प्रभाव हो जावेगा।( स० सा० गा०४६ की आत्मख्याति टीका)। निचलीअवस्था अर्थात् अपरमभाव में स्थित जीवों के लिए व्यवहारनय का उपदेश करने योग्य है (स.सा.गा. १२)।
-. ग. 24-1-63/VII/ मो. ला. सम्यग्दर्शन का लक्षण शंका-सम्यग्दर्शन का लक्षण भिन्न-भिन्न कहा गया है जैसे(क) सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का श्रद्धान (ख) तत्त्वों का श्रद्धान (ग) भेदविज्ञान (घ) स्वानुभव इन चारों में से सम्यग्दर्शन का यथार्थ लक्षण क्या है ?
समाधान-भेद-विज्ञान और स्वानुभव ये दोनों तो ज्ञान की पर्याय हैं अतः ये दोनों सम्यग्दर्शन के लक्षण नहीं हो सकते । कहा भी है-~
'ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतया प्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण ज्ञेय ज्ञातृत्त्व तथानुभूति-लक्षणेन ज्ञानपर्यायेण ।' (प्रवचनसार गाथा २४२ की टीका)
ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की यथार्थ प्रतीति जिसका लक्षण है वह सम्यग्दर्शन पर्याय है, ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की यथार्थ अनुभूति जिसका लक्षण है वह ज्ञानपर्याय है ।
इसप्रकार श्री अमृतचन्द्राचार्य ने अनुभूति अर्थात् अनुभव को ज्ञानकी पर्याय कहा है और प्रतीति को दर्शन की पर्याय कहा है।
भेदविज्ञान में तो 'विज्ञान' शब्द स्वयं ज्ञान का द्योतक है।
'तत्त्वार्यश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । अस्य गमनिकोच्यते, आप्तागमपदार्थस्तत्त्वार्थस्तेषु, श्रद्धानजमनुरक्तता सम्यग्दर्शनमिति लक्ष्यनिर्देशः ।' (ध० पु. १ पृ० १५१)
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