Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
प्राचार्यादिक और सिद्धों के रत्नों में परोक्ष और प्रत्यक्ष जन्य भेद भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि, वस्तु के ज्ञानसामन्य की अपेक्षा दोनों एक हैं। केवल एक ज्ञान के अवस्था भेद से भेद नहीं माना जा सकता। यदि ज्ञान में उपाधिकृत अवस्थाभेद से भेद माना जावे, तो निर्मल और मलिनदशा को प्राप्त दर्पण में भी भेद मानना पडेगा। प्राचार्यादिक और सिद्धों के रत्नों में अवयव और अवयवीजन्य भी भेद नहीं है, क्योंकि, अवयव अवयवी से सर्वथा अलग नहीं रहते हैं।
शंका-सम्पूर्णरत्नत्रय को ही देव माना जा सकता है, रत्नों के एकदेश को देव नहीं माना जा सकता ?
समाधान-ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि, "रत्नों के एक देश में देवपने का प्रभाव मान लेने पर रत्नों की समग्रता में देवपना नहीं बन सकता है ।" ध. पु. १ पृ. ५२-५३ ।
-जं. ग. 2-4-64/IX| मगनमाला केवलज्ञान होने पर मुनि के कमण्डलु पिच्छिका का क्या होता है ? शंका-आजतक अनन्त केवली हुए। केवलज्ञान के बाद उनके पिच्छी-कमण्डलु कहाँ जाते हैं क्योंकि समवसरण में केवली के पास कमण्डलु-पिच्छी नजर नहीं आते हैं ?
समाधान-क्षपक श्रेणी प्रारम्भ हो जाने के पश्चात ही कमण्डलु-पिच्छिका की आवश्यकता नहीं रहती। केवलज्ञान होने के पश्चात् क्या होता है, यह कथन पागम में देखने में नहीं पाया।
-ज. ला. गन, भीण्डर/पन-8-7-80 प्राप्त के प्रभाव-प्राप्त १८ दोषों के नाम शंका-१८ दौष कौन से हैं ? इस विषय में कुछ भिन्न मत भी पाये जाते हैं क्या ? क्योंकि कहीं रतिअरति भी दोष में बताया गया है और कहीं नहीं। समाधान-श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्राप्तसम्बन्धी १८ दोषों का कथन इसप्रकार किया है।
छुहतण्ह भीररोसो रागोमोहोचिंताजरारजामिच्चू ।
स्वेदं खेदं मदो रइ विम्हियणिद्दा जाणुव्वेग्गो ॥६॥ नियमसार क्षुधा, तृषा, भय, रोष, राग, मोह, चिन्ता, जरा, रोग, मृत्यु, स्वेद, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा, जन्म, उद्वग; ये १८ दोष प्राप्त में नहीं होते हैं।
श्री समन्तभद्राचार्य ने १८ दोष निम्न प्रकार कहे हैं
क्षुत्पिपासाजरात जन्मान्तकभयस्मयाः । न रागद्बषमोहाश्च वस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ॥६॥र. क. श्रा.
जिसके भूख, प्यास, जरा, रोग, जन्म, मरण, भय, मद, राग, द्वेष, मोह और च शब्द से चिन्ता, रति, अरति, खेद, स्वेद, निद्रा, विस्मय ये १८ दोष नहीं हैं वह प्राप्त है।
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