Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
जिनके इतनी भी कषाय कम नहीं हुई कि असत्यभाषण का सर्वथा त्यागकर महाव्रत गहण कर सकें ऐसे गृहस्थों के वचन कैसे प्रमाणकोटि को प्राप्त हो सकते हैं ? कहा भी है
'ण च राग-दोस मोहोवहओ जहुत्तस्थपरूवओ, तत्थ सच्चवयणणियमाभावादो।'
अर्थात्-राग-द्वेष व मोह से युक्त जीव यथोक्त अर्थों का प्ररूपक नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें सत्यवचन के नियम का अभाव है । ( धवल पु० ९ पृ० १२७ )।
रागाविदोषाकुलमानसेर्यै ग्रन्थः क्रियते विषयेषु लोलैः ।
कार्याः प्रमाणं न विचक्षणस्ते जिधृक्षुभिर्धर्ममगर्हणीयम् ॥३१॥ अर्थ-रागादि दोषनिकरि व्याकुल और विषयनिविर्ष चंचल जो पुरुष ( गृहस्थ ) तिनकरि जे ग्रन्थ कहिये हैं ते ग्रन्थ अनिंद्य धर्म कू ग्रहण करने के वांछक प्रवीण पुरुषनिकरि प्रमाण करना योग्य नाहीं।
-अमितगति श्रावकाचार ११३९ द्रव्यआगम राग-द्वेष, भय से रहित आचार्यपरंपरा से प्राया हुआ है, इसलिये उसे अप्रमाण मानने में विरोध प्राता है (ज. ध. १ पृ.८३)। वक्ता की प्रमारणता से वचन की प्रमाणता होती है। ऐसा न्याय होने से प्राचार्यों के व्याख्यान और उनके द्वारा उपसंहार किया गया ग्रन्थ प्रमाण है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आजायगा । ( ज० ध० पु० १ पृ० ८५)।
-जं. ग. 6-12-65/VIII/ र. ला. जैन, मेरठ पंचाध्यायी के प्रणेता पं० राजमलजी हैं शंका-पंचाध्यायी कौन से आचार्यकृत है ?
समाधान-पंचाध्यायी किसी प्राचार्य की कृति नहीं है, किन्तु इसके कर्ता कवि राजमल्लजी हैं। इसमें सन्देह का कोई स्थान नहीं है।
श्री पं० राजमल्लजीकृत लाटीसंहिता का पंचाध्यायी से निकट का सम्बन्ध है। सम्यक्त्व के प्रकरण के सैकड़ों श्लोक लाटीसंहिता और पंचाध्यायी दोनों में एकसे हैं। कुछ दूसरे श्लोक भी मिलते-जुलते हैं। यह सादृश्य पंचाध्यायी के दूसरे अध्याय के ३७२ वें श्लोक और लाटीसंहिता के तीसरे सर्ग के २७ वें श्लोक से चालू होकर पंचाध्यायी के ३९९ वें श्लोक पर और लाटीसंहिता के ५४ वें श्लोक पर समाप्त होता है। इसके पश्चात पंचाध्यायी के ४१० वें श्लोक से और लाटीसंहिता के ५५ वें श्लोक से यह सादृश्य चालू होकर पंचाध्यायी के ४३४ वें श्लोक पर और लाटीसंहिता के ७९ वें श्लोक पर पूरा होता है। पंचाध्यायी के श्लोक ४३५-४३६ तथा लाटीसंहिता के श्लोक ८० व ८१ ये दो श्लोक एकसे हैं। पंचाध्यायी के ४३९ वें श्लोकसे और लाटीसंहिता के ८२ वें श्लोकसे पुनः सादृश्य चालू होकर पंचाध्यायी के ४७६ वें श्लोक पर और लाटीसंहिता के ११९ वें श्लोक पर समाप्त होता है। आगे पंचाध्यायी के ४७७ वें श्लोकसे और लाटीसंहिता के चौथे अध्याय के प्रथमश्लोक से यह सादृश्य चालू होकर पंचाध्यायी के ७२० वें श्लोक पर और लाटीसंहिता के २४२ वें श्लोक पर समाप्त होता है । पंचाध्यायी में ७४३ वें श्लोक से और लाटीसंहिता के २४३ वें श्लोक से यह सादृश्य चालू होकर पंचाध्यायी के ७७१ वें श्लोक पर और लाटीसंहिता के २७२ वें श्लोक पर समाप्त होता है। आगे पंचाध्यायी में ७७२ वें श्लोक से और लाटीसंहिता में २७६ वें श्लोक से यह सादृश्य चालू होकर पंचाध्यायी में ८१७ वें श्लोक पर और लाटीसंहिता में ३२२ वें श्लोक पर समाप्त होता है।
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