Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १४१९
विशेष के लिये 'वीर' नामक पत्र के वर्ष ३ अंक ११-१२ में श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार का लेख देखना चाहिए । इस लेख के प्रकाशित हो जाने के पश्चात् पंचाध्यायी के कर्त्ता विषयक भ्रम दूर हो गया है और यह निर्विवाद मान लिया गया है कि पंचाध्यायी के कर्त्ता श्री पं० राजमलजी ही हैं ।
- जै. ग. 13-7-72 / VII / ता. च. म. कु.
उपसर्ग प्रादि के समय देवों द्वारा रक्षा का हेतु
शंका- किसी को दुःख सुख हो रहा है, क्या देव उसको अवधिज्ञान द्वारा जान जाते हैं ? तब जो रक्षार्थ आते हैं तो क्या पहले जन्म के सम्बन्ध से आते हैं या कोई और कारण है ?
समाधान-- दूसरे जीवों को जो सुख - दुःख हो रहा है, देव उसको अवधिज्ञान द्वारा जान सकते हैं । पूर्वभव के सम्बन्ध से भी देव उस जीव की रक्षार्थ आ सकता है । और अन्य कारणों से भी आ सकता है। कोई एकान्त नियम नहीं है । जैसे देव का करुणाभाव, उस जीव का पुण्य उदय श्रादि अनेक कारण हो सकते हैं ।
- जै. ग. 17-7-67/ VI/ ज. प्र. म. कु.
तीर्थंकर व सामान्य केवली की प्रतिमा में प्रन्तर
शंका- चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमा में और केवली की प्रतिमा में कुछ अन्तर है या नहीं ?
समाधान - चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं पर उनके चिह्न होते हैं, किन्तु सामान्यकेवली की प्रतिमा पर कोई चिह्न नहीं होता है। तीर्थंकरकेवली व सामान्यकेवली दोनों अर्हन्त होते है अतः दोनों की अर्हन्त प्रतिमा का प्राकार होता है ।
- जै. सं. 17-1-57/VI / ब. बा. हजारीबाग
धवला के द्रव्यप्रमाणानुगम में निर्दिष्ट संख्या उत्कृष्टत: हैं
शंका-धवला पु० ३ द्रव्यप्रमाणानुगम में जो संख्याएँ दी गई हैं वे नियत हैं या उत्कृष्ट हैं या तद्व्यतिरिक्त ?
समाधान - धवल पु० ३ में जो संख्याएँ दी गई हैं वे उत्कृष्टत: हैं । अभिप्राय यह है कि उससे अधिक नहीं हो सकते, किंचिदून हो सकते हैं ।
Jain Education International
'भक्तामर स्तोत्र' के १७वें १८वें श्लोक में 'राहु' शब्द उचित है
शंका- भक्तामर स्तोत्र के १७ वें व १८वें श्लोक में श्री जिनेन्द्रदेव की उपमा क्रमशः सूर्य और चन्द्रमा से दी गई है किन्तु जिनेन्द्र को राहु के ग्रहण से रहित बतलाया गया है। दोनों संस्कृत श्लोकों में 'राहु' शब्द का ही प्रयोग किया गया है जो इस प्रकार है- १७वें श्लोक में 'न राहुगम्य: ।' तथा १८वें श्लोक में 'गम्यं न राहुवचनस्य ।' किन्तु चन्द्रमा और सूर्य के ग्रहण के हेतु क्रमशः राहु और केतु हैं । 'केतु' के स्थान पर 'राहु' का प्रयोग क्यों किया गया ?
-पनाधार / ज. ला. जैन, भीण्डर
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org