Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १४१७
पाया जाता है । यदि उनका उल्लेख किया जावे तो एक पुस्तक बन जावेगी। अतः जिनमें अनेक स्थलों पर आगम अनुसार कथन नहीं हैं, वे ग्रन्थ प्रामाणिक कैसे हो सकते हैं ? प्रमाणता आगम की है। आशा है कि विद्वत्परिषद् इन ग्रंथों का सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन कर और प्राचार्य-रचित आगम से मिलान करने के पश्चात् इनके सम्बन्ध में निष्पक्ष और नि:स्वार्थ भाव से अपने विचार प्रकट करने की कृपा करेगी।
प्राचार्यरचित ग्रन्थ प्रामाणिक हैं शंका-जिसप्रकार आजकल अनेक मुनि व आचार्य शिथिलाचारी हैं, क्या यह नहीं हो सकता कि ८००१००० वर्ष पूर्व भी कोई आचार्य द्रव्यलिंगी रहे हों, ऐसे आचार्य द्वारा रचित ग्रन्थ आगम की कोटि में कैसे ? क्यों न केवल तीर्थकर और श्रुतकेवली की रचना ही प्रामाणिक मानी जाय ?
समाधान-तीर्थकर की दिव्यध्वनि प्रामाणिक है क्योंकि वह केवलज्ञान का कार्य है। 'तस्य ज्ञानकार्यत्वात' धवल १पृ०३६८ । इस दिव्यध्वनि के आधार से श्री गणधरदेव ने द्वादशाङ्ग की रचना की। इस द्वादशाङ्ग का उपदेश गुरुपरम्परा से प्राचार्यों को प्राप्त हुआ और उस उपदेश के अनुसार ग्रंथों की रचना हुई। श्री समयसार गाथा ५की टीका में भी श्री अमृतचन्द्राचार्य ने 'निर्मल विज्ञानघनांतरनिमग्नपरापरप्रसादीकृतशद्धात्मतत्त्वानशासन जन्मा' इन शब्दों द्वारा यह बतलाया है कि सर्वज्ञदेव और गणधरदेव से लेकर अपने गुरु पर्यंत जो उपदेश तथा पूर्व आचार्यों के अनुसार जो उपदेश है, उससे मेरे ज्ञानका जन्म हुआ है उस ज्ञान से ग्रंथ की रचना श्री कुन्दकन्दाचार्य ने की है । पूर्व प्राचार्यों के परम्परा से प्राप्त उपदेश अनुसार ग्रंथों की रचना की है अतः वे प्रामाणिक हैं ।
श्री वीरसेनाचार्य ने भी कहा है।
'नाप्यार्षसन्ततेविच्छेदो विगतदोषावरणाहव्याख्यातार्थस्यार्षस्य चतुरमलबुद्ध्यतिशयोपेतनिर्दोषगणभृदव. धारितस्य ज्ञानविज्ञानसम्पन्नगुरुपर्वक्रमेणायातस्याविनष्टप्राक्तनवाच्यवाचकभावस्य विगतदोषावरणनिष्प्रतिपक्षसत्यस्वभावपुरुषव्याख्यातत्वेन, श्रद्धाप्यमानस्योपलंभात् । अप्रमाणमिदानीन्तन आगमः आरातीय पुरुषव्याख्यातार्थत्वादिति चेन्न, ऐदंयुगीनज्ञानविज्ञानसम्पन्नतया प्राप्तप्रमाण्यैराचार्याख्यातार्थत्वात् । कथं छद्मस्थानां सत्यवादित्वमिति चेन्न, यथाश्रुतव्याख्यातृणां तद्विरोधात् । धवल १पृ० १९६-१९७
अर्थ-पार्षपरम्परा का विच्छेद भी नहीं है, क्योंकि, जिसका दोष और प्रावरण से रहित अरहंत परमेष्ठी ने अर्थरूप से व्याख्यान किया है, जिसको चार निर्मल बुद्धिरूप अतिशय से युक्त और निर्दोष गणधरदेव ने धारण किया है, जो ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न गुरुपरम्परा से चला आ रहा है, जिसका पहले का वाच्य-वाचक अभी तक नष्ट नहीं हुआ है और जो दोषावरण से रहित तथा निष्प्रतिपक्ष सत्यस्वभाववाले पुरुष के द्वारा व्याख्यात होने से श्रद्धा के योग्य है ऐसे आगम की अाज भी उपलब्धि होती है । यदि कहा जाय कि आधुनिक प्रागम अप्रमाण है, क्योंकि अर्वाचीन पुरुषों ने इसके अर्थ का व्याख्यान किया है। यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस कालसम्बन्धी ज्ञानविज्ञान से सहित होने के कारण प्रमाणता को प्राप्त प्राचार्यों के द्वारा इसके अर्थ का व्याख्यान किया गया है, इसलिये प्रागम भी प्रमाण है। यदि यह शंका की जाय कि छद्मस्थों के सत्यवादीपना कैसे माना जा सकता है ? तो यह शंका भी ठीक नहीं है, क्योंकि श्रु त के अनुसार व्याख्यान करनेवाले आचार्यों के प्रमाणता मानने में कोई विरोध नहीं है।
प्राचार्यों के सत्यमहावत होता है अतः उनके असत्यभाषण का अभाव होता है, इसलिये असत्यभाषण का प्रभाव भी आगम की प्रमाणता का ज्ञापक है-'तदभावो वि आगमस्स पमाणं जाणावेदि।' धवल पु. ९ पृ. १०९।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org