Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १४१५
श्लोक ४७-४८ )। पूजासार समुच्चय ग्रन्थ में भी इन चिह्नों को ध्वजा के चिह्न ही प्रतिपादन किया है। जो मूर्तियाँ बिना चिह्नों की होती हैं, वे तीर्थकरों से भिन्न सामान्य केवलियों की होती है । अनेकान्त वर्ष १, किरण २ में पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने भी लिखा है कि "यह मानना ज्यादा अच्छा होगा कि ये चिह्न तीर्थंकरों की ध्वजारों के चिह्न हैं और शायद इसी से मूर्ति के किसी अग पर न दिए जाकर पासन पर दिये जाते हैं।" चर्चा समाधान में पं० भूधरदासजी ने लिखा है कि "तीर्थङ्कर के दाहिने पाँव में जो चिह्न जन्म सो होई सोई प्रतिमा के प्रासन विष जानना"
जम्मणकाले जस्स दु दाहिण पायम्मि होई जो चिह्न । तं लक्खण पाउत्त, आगमसुत्त सु जिणदेहं ॥
_ -.सं. 21-11-57/ प. ला., अम्बाला
महापुराण, हरिवंशपुराण प्रादि प्रामाणिक हैं शंका-महापुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थ प्रामाणिक हैं या नहीं। बहुत से व्यक्ति इनको प्रामाणिक नहीं मानते । क्या यह ठीक है ?
समाधान--महापुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण प्राचीन प्रामाणिक वीतराग आचार्यों द्वारा विरचित हैं, अतः प्रामाणिक हैं । अन्य ग्रन्थ भी जो प्राचीन प्रामाणिक वीतराग आचार्य द्वारा रचे गये हैं वे सब प्रामाणिक हैं। प्रागमविरुद्ध युक्ति होती नहीं है, क्योंकि वह युक्त्याभासरूप होगी। ( ण च सुत्तविरुद्धाजुत्ती होदि तिस्से जुत्तियाभासत्तादो। षट्खण्डागम पु० ९ पृ० ३२ )। जो व्यक्ति इन ग्रन्थों को प्रामाणिक नहीं मानते वे स्वयं विचार करें कि उनकी यह मान्यता कहाँ तक ठीक है ?
-जे. सं. 9-1-58/VI/ ला. प. नाहटा, केकड़ी
प्रागम/प्रामाणिक और अप्रामाणिक शंका-आगम की प्रामाणिकता, अप्रामाणिकता का निर्णय कैसे होता है ?
समाधान-प्रमाण के अनेक भेदों में से प्रागम भी प्रमाण का एक भेद है। ( परीक्षामुख अ. ३ सू. २ ) मोक्षमार्ग में आगम की सर्वोत्कृष्ट आवश्यकता है। क्योंकि मुक्ति का कारणीभूत जो तत्त्वज्ञान है वह आगमज्ञान से . प्राप्त होता है। कहा भी है-सब प्राणी शीघ्र ही यथार्थ सुखको प्राप्त करने की इच्छा करते हैं। सुख की प्राप्ति समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर होती है, कर्मों का क्षय व्रतों से होता है । वे सम्यक व्रत सम्यग्ज्ञान के अधीन हैं। सम्यग्ज्ञान आगम से प्राप्त होता है । ( आत्मानुशासन श्लोक ९)
श्रमण रत्नत्रय की एकाग्रता को प्राप्त होते हैं। किन्तु वह एकाग्रता स्व-पर पदार्थ के निश्चयवान के होती है। पदार्थों का निश्चय आगम द्वारा होता है। इसलिये आगम अभ्यास मख्य है। (प्र. सा. गा.२३२) मागम हीन श्रमण निज पर को नहीं जानता। पदार्थों को नहीं जानता हुआ भिक्षु कर्मों का किस प्रकार क्षय कर सकता है। (प्र. सा. गाथा २३३ ) इसीलिए साधुओं को पागम चक्षु वाले कहा है। क्योंकि केवलज्ञान की सिद्धि के लिए भगवन्त श्रमण प्रागम-चक्षु होते हैं । (प्र. सा. गाथा २३४ )
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