Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
'द्रव्यादिबाह्यनिमित्तसन्निधाने सत्याभ्यन्तरसम्यग्दर्शनादिमोक्षमार्गप्रकर्षावाप्तौ कृत्स्नकर्मसंक्षयात् मोक्षो विवक्षितस्ततो न दोषः ।'
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क्षायिकरत्नत्रय होनेपर श्रात्मा घातिया कर्मों से प्रत्यन्त निवृत्त हो जाता है और प्रात्मा में श्रात्यन्तिकविशुद्ध जाती है इसलिये क्षायिक की अपेक्षा क्षायिकरत्नत्रय अपूर्ण नहीं हो सकता । श्री अकलंकदेव ने भी कहा है । 'आत्मनोऽपि कर्मणोऽत्यन्तविनिवृत्तौ विशुद्धिरात्यन्तिकी क्षय इत्युच्यते ।' श्री विद्यानन्दस्वामी ने भी कहा है— 'सयोगकेवलिरत्नत्रयमयोगिकेव लिचरमसमयपर्यन्तमेकमेव ।' तेरहवेंगुणस्थान का रत्नत्रय श्रौर चौदहवेंगुणस्थान के अन्तिमसमयतक का रत्नत्रय एक ही है।
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सिद्धों के १४ गुरण
शंका- अनन्तव्रत कथा में सिद्धों के १४ गुणों का वर्णन आया है। वे १४ गुण कौन से हैं ? इस कथा में १४ अवधिज्ञानी मुनियों का भी वर्णन है । उन १४ अवधिज्ञानी मुनियों के नाम क्या हैं ?
समाधान -- सिद्धों के अनन्तगुण हैं उनमें से कोई से १४ गुणों के नाम उच्चारण किये जा सकते हैं । सम्यक्त्व ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्म, श्रवगाहन, अगुरुलघु, अव्याबाध, गतिरहितता, इन्द्रियरहितता, शरीररहितता, योगरहितता, वेदरहितता, कषायरहितता १४ गुणों का अथवा अन्य १४ गुणों का वर्णन हो सकता है । ( वृहद् - द्रव्यसंग्रह, गाथा १४, टीका ) । श्रवधिज्ञानीमुनि भी अनन्त हो चुके हैं । गत चतुर्थकाल में भी असंख्यात श्रवधिज्ञानीमुनि हुए हैं। इनमें से किन्हीं १४ का नाम लिया जा सकता है |
-ॉं. सं. 8-1-59/V / टीकमचंद जैन, पचेवर निर्वारण के समय भगवान् नीचे ( पृथ्वी पर ) प्रा जाते हैं
शंका- केवलज्ञान होने पर केवली भगवान भूभाग से ५ हजार धनुष ऊँचे उठ जाते हैं। योग निरोध होने पर समवसरण गंधकुटी आदि विघट जाते हैं, तो क्या वे अधर ही रहते हैं अथवा निर्वाण के समय नीचे पृथ्वी पर आ जाते हैं अर्थात् मुक्ति किस स्थान से होती है ?
समाधान - निर्वाण के समय केवली भगवान नीचे श्रा जाते हैं अन्यथा 'स्थलगत ' सिद्धों का कथन नहीं बन सकेगा । स्थलगत जलगत व आकाशगत सिद्ध होते
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-जै. सं. 4-12-58 / V / .....
कर्मभूमि की प्रादि में धान्यादि की स्वयं उत्पति
शंका-अमृतादि की सात-सात दिन वर्षा होने के बाद भूमि में लता, गुल्म आदि स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं। तो बीजरह शब्द की कोई जरूरत नहीं रही । जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बोज ऐसा अनादिकाल से चला आता है ।
समाधान - लता, गुल्म आदि सम्मूच्र्छन हैं । अतः इनकी उत्पत्ति बीज से ही हो, ऐसा एकांतनियम नहीं है । बाह्यद्रव्यों के संयोग से यदि इनके योग्य योनिस्थान बन जावे तो इनकी उत्पत्ति में कोई बाधा नहीं है । द्वन्द्रियादि जीवों की भी इसप्रकार उत्पत्ति देखी जाती है । कर्मभूमि की आदि में भी धान्य आदि की स्वयं उत्पत्ति देखी जाती है ।
- जं. सं. 5-2-59 / V / मा. सु. रविका, ब्यावर
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