Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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.. व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १३९७ श्री नरेन्द्रसेनाचार्य सिद्धांतसार में कहते हैं
अज्ञानान्धतमस्तोमविद्ध्वस्ताशेषदर्शनाः। भव्याः पश्यन्ति सूक्ष्मार्थान्गुरुभानुवचोंऽशुभिः ॥१-२७॥ मिथ्यावर्शनविज्ञानसन्निपातनिपीडनात् ।
गुरुवाक्यप्रयोगेण सर्वे मुञ्चन्ति मानवाः ॥१॥२८॥ अर्थ-प्रज्ञानरूप अंधकार समूह से वस्तुओं को अवलोकन करने की जिनकी शक्ति नष्ट हो गई है ऐसे भक्तजीवों को गुरुवचन ही सूक्ष्मपदार्थ को दिखाते हैं ।
गुरुपदेश के प्रयोग से सब मनुष्य मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञानरूपी ज्वर की पीड़ा से मुक्त होते हैं । अर्थात् जिनवाणी से मिथ्यात्व का नाश होकर प्रज्ञानीजीव ज्ञानी बन जाता है । - इन प्राचार्यवाक्यों के विरुद्ध सोनगढ़वाले यह कहते हैं कि जिनवाणी से किसी को लाभ नहीं होता।
विधाय मातः प्रथमं त्वदाश्रयं श्रयन्ति तन्मोक्षपदं महर्षयः ।
प्रदीपमाश्रित्य गृहे तमस्तते यदीप्सितं वस्तु लभते मानवः ॥१५॥१२॥ अर्थ हे जिनवाणी माता ! महामुनि जब पहिले तेरा अवलम्बन लेते हैं तब कहीं मोक्ष को पाते हैं । ठीक भी है कि मनुष्य अन्धकार से व्याप्त घर में दीपक का अवलम्बन लेकर ही इच्छित वस्तु प्राप्त करता है ।
अगोचरे बासरकृन्निशाकृतोर्जनस्य यच्चेतसि वर्तते तमः ।
विभिद्यते वागधिवेवते त्वया त्वमुत्तमज्योतिरिति प्रणीयसे ॥१५॥२०॥ अर्थ-हे जिनवाणी ! मनुष्यों के चित्त में जो अज्ञान स्थित है उसे न तो सूर्य नष्ट कर सकता है और न चन्द्रमा ही । परन्तु हे देवी ! उसको तू नष्ट करती है, इसलिये जिनवाणी को उत्तमज्योति कहा जाता है ।
सोनगढ़वालों का मूल आधार इष्टोपदेश श्लोक ३५ है, जिसमें 'नाज्ञो विज्ञत्वमायाति अर्थात् मूर्ख ज्ञानी नहीं हो सकता' ऐसा कहा है। यहाँ पर 'अज्ञः' अर्थात् मूर्ख से अभिप्राय प्रभव्यजीव से है। संस्कृत टीका में कहा भी है-'अज्ञस्तत्वज्ञानोत्पत्ययोग्योऽभव्यादिः ।' अर्थात् 'अज्ञः' से अभिप्राय प्रभव्य का है, जो तत्त्वज्ञानोत्पत्ति के अयोग्य है।
यदि इष्टोपदेश श्लोक ३५ का यह अर्थ कर दिया जाय कि कोई भी अज्ञानी ज्ञानी नहीं हो सकता तो मोक्षमार्ग का ही अभाव हो जायगा, क्योंकि प्रत्येक जीव अनादि से मिथ्याष्टि है। जितने भी सिद्ध हए वे भी अनादि से अज्ञानी थे और उपदेशादि के द्वारा उनको सम्यग्दर्शन का लाभ हुआ अर्थात् ज्ञानी बने हैं।
यदि उपदेश को सम्यग्दर्शन में हेतु न माना जाय तो अधिगमज सम्यग्दर्शन के अभाव का प्रसंग प्रा जायगा। मोक्षशास्त्र अध्याय १ सूत्र ३ 'तनिसर्गादधिगमाद्वा' में यह बतलाया है कि वह सम्यग्दर्शन निसर्ग और परोपदेश से होता है। इसकी टीका में श्री पूज्यपादआचार्य ने लिखा है कि निसर्गज और अधिगमज दोनों सम्यग्दर्शन में दर्शनमोहनीयकर्म का उपशम, क्षय, क्षयोपशमरूप अन्तरंगकारण समान है, किन्तु जो बाह्य उपदेश के बिना होता है वह नैसर्गिक है और जो परोपदेशपूर्वक जीवादिपदार्थों के ज्ञान के निमित्त से होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है। यही इन दोनों में भेद है।
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