Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ १४०३
समाधान — छहढाला की दूसरी ढाल के तेरहवें पद्य में कुशास्त्र के लक्षण का कथन । यथा
एकान्तवाद दूषित समस्त विषयादिक पोषक अप्रशस्त । कपिलादि रचित श्रत को अभ्यास सो है कुबोध बहु देन वास ॥
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
इस पद्य में कपिलादि द्वारा रचित शास्त्रों को कुशास्त्र बतलाया गया है, क्योंकि उनमें एकान्त अर्थात् निरपेक्षदृष्टि से एकान्त का कथन है तथा उनमें पाँचइन्द्रियों के विषयों के पोषण का उपदेश है ।
इस छहढाला की टीका सोनगढ़ से प्रकाशित हुई है। जिसमें उपर्युक्त पद्य की व्याख्या करते हुए निम्नप्रकार लिखा है
'दया, दान, महाव्रतादि के शुभभाव जो कि पुण्यास्रव हैं उससे तथा मुनि को आहार देने के शुभभाव से संसारपरित ( श्रल्पमर्यादित ) होना बतलाये, तथा उपदेश देने के शुभभाव से धर्म होता है आदि जिनमें विपरीत कथन हों वे शास्त्र एकान्त और प्रशस्त होने के कारण कुशास्त्र हैं, क्योंकि उनमें प्रयोजनभूत साततत्त्वों की यथार्थता नहीं है ।''
दि० जैन ग्रन्थों में दया दान महाव्रत को धर्म तथा संसार के अभाव का प्रर्थात् मोक्ष का कारण कहा गया है और सोनगढ़ की व्याख्या के अनुसार वे भी कुशास्त्र हैं इसलिए श्री महावीरजी में पंचकल्याणक - प्रतिष्ठा के शुभ अवसर पर मई १९६४ में शास्त्रिपरिषद् के अधिवेशन में सोनगढ़ की उपर्युक्त व्याख्या के विरोध में प्रस्ताव पास हुआ था ।
सोनगढ़ से प्रकाशित जनवरी १९६६ के हिन्दी श्रात्मधर्म में इस प्रस्ताव का उत्तर देते हुए पृ० ५५१ पर लिखा है- 'श्वेताम्बर शास्त्रों में व्रत, दान, दयादि के शुभभावों से संसार परित होना लिखा है, दिगम्बरशास्त्र तो दयादि के शुभभावों से पुण्य होना मानते हैं, संसार का प्रभाव होना नहीं मानते अतः उपरोक्त दृष्टि से कथन श्राया है।'
दया, दान, व्रत को धर्म तथा इनसे संसार का अभाव व मोक्ष की प्राप्ति प्रायः सभी दिगम्बर जैन आर्षग्रन्थों में बतलाई गई है । उनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ पर भी किया जाता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य मूलाचार पर्याप्ति अधिकार में कहते हैं
saण सव्वजीवे दमिदूण य इंदियाणि तह पंच । अट्ठविहकम्मरहिया णिव्वाणमणुत्तरं जाथ ॥ २३८ ॥
अर्थ - सर्व जीवों पर दया तथा स्पर्शनादि पाँच इंद्रियों के दमन द्वारा ग्राठकर्मों से रहित होकर सबसे उत्कृष्ट मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
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आद्या सद्व्रतसंचयस्य जननी सौख्यस्य सत्संपदा ।
मूलं
धर्मं तरोरनश्वरपदारोहक निःश्रेणिका ॥ पद्मनन्दि. पंच. १८
अर्थ – यहाँ धर्मात्मा सज्जनों को सबसे पहिले प्राणियों के विषय में नित्य ही दया करनी चाहिये, क्योंकि वह दया समीचीन व्रतसमूह सुख एवं उत्कृष्ट सम्पदानों की मुख्य जननी है, तथा दयाधर्मरूपी वृक्ष की जड़ है और मोक्षमहल पर चढ़ने के लिये अपूर्व नसैनी है ।
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