Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
की मुख्यता से समयसार गाथा ५०-५५ में रागादिक को निश्चय से पुद्गलद्रव्य की पर्याय कहा है। इसीप्रकार समयसार गाथा २७८ व २७९ में स्फटिकमणि का दृष्टान्त देकर यह कहा गया है कि जीव स्वयं रागादिरूप नहीं परिणमता, किन्तु अन्य ( पुद्गल कर्मों ) के द्वारा रागी किया जाता है।
प्रार्षग्रन्थों में कहीं पर उपादानकर्ता की मुख्यता से कथन है, कहीं पर निमित्तकर्ता की मुख्यता से कथन है । इनमें से किसी एक का एकान्ताग्रह करना मिथ्यात्व है।
-जं. ग. 13-12-65/VIII/ र. ला. जैन
'उपकार' शंका-'शरीर वाङमनः प्राणापानाः पुद्गलानां' इस सूत्रानुसार शरीर, वचन, मन आदि पुद्गलों का उपकार है, किन्तु यह ही तो संसार-दुःख की जड़ है फिर इन्हें उपकार किस अपेक्षा कहा?
समाधान-अध्याय पाँच में 'उपकार' से प्रयोजन निमित्त या सहकारीकारण से है । उपकार का अर्थ यहाँ इष्टकारक नहीं ग्रहण करना।
-जं. ग. 31-10-63 /IX/ र. ला. जैन, मेरठ
उपक्रमण काल की परिभाषा
शंका-उपक्रमणकाल किसे कहते हैं ?
समाधान-निरन्तर उत्पन्न होने के काल को अथवा निरन्तर प्रवेश होने के काल को अथवा निरन्तर आयके काल को उपक्रमणकाल कहते हैं । जैसे देवगति में जीवों के निरन्तर उत्पन्न होने के काल को उपक्रमणकाल कहते हैं । अन्य गुणस्थान से आकर तीसरेगुणस्थान में जीवों के निरन्तर प्रवेशकाल को उपक्रमणकाल कहते हैं।
-0.ग. 20-4-72 /IX/यपाल
'कांजी' का अर्थ शंका-रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक १४० की टीका में 'कांजी' शब्द आया है। इसका क्या अर्थ है ? समाधान-खटास से युक्त पेय को 'कांजी' कहते हैं, जैसे इमली आदि का पानी या तक्र ादि ।
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-जे. ग. 27-7-72 |IX/ र. ला. गैन
काल क्षय
शंका-ध० पु०८ पृ० १७ हिन्दी पंक्ति १२ पर और पृ० ४४ हिन्दी पंक्ति १० पर 'कालक्षय' शब्द आया है । इसका क्या अभिप्राय है ?
समाधान-जो सप्रतिपक्ष बंधप्रकृतियाँ हैं, उनका बंध अपने नियतकालतक होता है। नियतकाल के समाप्त होने पर विवक्षितप्रकृति का बंध रुक जाता है और प्रतिपक्षप्रकृतियों का बंध प्रारम्भ हो जाता है। जैसे असातावेदनीयकर्मप्रकृति की प्रतिपक्ष सातावेदनीय कर्मप्रकृति है । साता व असातावेदनीय कर्मप्रकृतियों में से प्रत्येक का जघन्यबंधकाल एकसमय है और उत्कृष्टबंधकाल अन्तर्मुहूर्त है ( महाबंध पु० १पृ० ४७ )। सातवेंगुणस्थान से मात्र साता का ही बंध होता है। छठेगुणस्थानतक असातावेदनीयकर्म का बंधकाल क्षय ( समाप्त ) हो जाने पर
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