Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इसप्रकार गाथा ३६ में जो मोहपद है उसे पलटकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शन ये सोलह जुदे-जुदे सोलह गाथा सूत्रों कर व्याख्यान करने ।
इन १६ में मिथ्यात्व नहीं लिया गया है, क्योंकि मोह शब्द से मिथ्यात्व का ग्रहण हो जाता है। रागादि को पृथक् लिखा है । इससे ज्ञात होता है कि मोह शब्द से रागादि का ग्रहण नहीं होता है।
-जं.ग. 20-8-70/VII/र.ला.जन मेरठ
राजू का अर्थ शंका-एक राजू में कितने योजन होते हैं ? अर्द्ध रज्जू में कितने योजन बनेंगे ? समाधान-एक राजू में असंख्यात योजन होते हैं । अर्द्ध राजू में भी असंख्यात योजन होते हैं ।
-पत्र 28-1-79/ज. ला. जन, भीण्डर 'लब्धि' के विभिन्न अर्थ
शंका-लब्धि का क्या मतलब है ?
समाधान-लाभ को लब्धि कहते हैं ( रा. वा. अ. २ सूत्र १८ ) विशेष तप से जो ऋद्धि प्राप्त होती है वह लब्धि है ( रा. वा. अ. २ सूत्र ४७ ) दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ हैं ( रा. वा. अ. २ सूत्र ५)। ज्ञानावर्णकर्म के क्षयोपशमविशेष को लब्धि कहते हैं (रा. वा. अ. २ सूत्र १८) । क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य व करण ये पाँच लब्धियाँ हैं। (लब्धिसार ) इसप्रकार अनेक अन्य स्थलों पर 'लब्धि' शब्द का भिन्न-भिन्न अभिप्रायों को लेकर प्रयोग किया गया है । जहाँ जैसा अभिप्राय हो वहाँ वैसा जान लेना चाहिये ।
-4.ग. 2-4-64/IX/ मगनमाला
लोक की परिभाषा
शंका-पुण्य-पाप के सुख-दुःखरूप फल जिसके द्वारा देखे जायें उसका नाम लोक है अथवा जो पदार्थों को देखे-जाने उसका नाम लोक है। इन दोनों प्रकार के अर्थों से तो आत्मा के ही लोकपना सिद्ध होता है। इस पर शंका होती है कि आगम में जो छह द्रव्यों के समूह को लोक कहा है वह किसप्रकार है ?
समाधान-लोक का व्युत्पत्ति-अर्थ इसप्रकार भी है'लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोकः तस्माद्वहिर्भूतमनन्तशुद्धाकाशमलोकः'
-पंचास्तिकाय गाथा ३ टीका जहाँ जीवादि पदार्थ ( छह द्रव्य ) दिखलाई पड़ें वह लोक है, इसके बाहर अनन्त शुद्धआकाश है सो अलोक है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने लोक का लक्षण इसप्रकार कहा है
पोग्गलजीवणिबद्धो धम्माधम्मस्थिकायकालड्ढो। वट्टदि आगासे जो लोगो सो सव्वकाले दु ॥१२८॥ ( प्रवचनसार )
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