Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १३७१ 'अनिर्वतिता' का अर्थ शंका-सर्वार्थसिद्धि १।२३ में 'कस्मादनिर्वतिता' शब्द आया है । इसमें अनिर्वतिता का क्या अर्थ है ?
समाधान-संस्कृत-शब्दार्थ-कौस्तुभ में निर्वृत्ति का अर्थ निष्पत्ति, समाप्ति दिया है । यहाँ पर अचिन्तितअर्थ व अर्धचिन्तितमर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि परपदार्थ के चिन्तनकार्य की समाप्ति नहीं हुई है, अथवा निष्पत्ति नहीं हुई है । विपुलमतिमनःपर्यय ज्ञान का विषय चिन्तित पदार्थ तो है ही, किन्तु जिन पदार्थों का अभी चिन्तन नहीं हुआ, ऐसे अचिन्तित अर्थ को और जो पदार्थ अभी अर्द्ध चिन्तित हैं अर्थात् जिन पदार्थों के चिन्तन की अभी तक निष्पत्ति या समाप्ति नहीं हुई, उनको भी विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी जानता है ।
-पसाचार 77-78/ज. ला. जैम, श्रीण्डर
'अनुभूति' शंका-पुरुषार्थसिद्धच पाय भव्य प्रबोधिनी टीका में अनुभूति लन्धिरूप भी और उपयोगरूप भी दी है। क्या अनुभूति लब्धिरूप भी मानी जाएगी ? ।
समाधान–अनुभूति के अनेक अर्थ हैं(१) अनुभूति का अर्थ प्रतीति ( श्रद्धा ) है । कहा भी है—'संवित्त्युपलब्धि प्रतीत्यानुभूति रूपं ।'
-पंचास्तिकाय पृ.२९-३० रायचन्द्र ग्रन्थमाला (२) अनुभूति का अर्थ चेतना व वेदना भी है। कहा भी है-'चेतनानुभूत्युपलब्धि वेदना नामेकार्थत्वात् ।'
-पं० का० पृ० ७९ (३) अपने आपका जानना, अनुभवन (अनुभूति) है । कहा भी है-'स्वस्यानुभवनमर्थवत्।' परीक्षामुख । अर्थ-आपका अनुभव प्रापके है जैसे अन्यअर्थ का अनुभवन है तैसे ही आपका है। अर्थात् अनुभव ( अनुभूति ) का अर्थज्ञान है।
(४) अनुभवन ( अनुभूति ) का अर्थ दर्शनोपयोग भी है, कहा भी है
(अ) 'आलोकनवृत्तिर्वादर्शनम् । अस्य गमनिका, आलोकत इत्यालोकनमात्मा, वर्तनं वृत्तिः आलोकनस्य वृत्तिरालोकनवृत्तिः स्वसंवेदनं, तद्दर्शनमिति ।' ध. १ पृ० १४८-१४९ ।
अर्थ-पालोकन अर्थात् प्रात्मा के व्यापार को दर्शन कहते हैं। जो अवलोकन करता है, उसे पालोकन या आत्मा कहते हैं। वर्तन अर्थात व्यापार को वृत्ति कहते हैं। आलोकन की वृत्ति को स्वसंवेदना कहते हैं और वही दर्शन है।
(आ) 'यद्यस्य ज्ञानस्योत्पादकं स्वरूपसंवेदनं तस्य तद्दर्शनव्यपदेशात् ।' ध. १ पृ० ३८१ अर्थ-जिस ज्ञान को उत्पन्न करनेवाला स्वरूपसंवेदन ( अनुभूति ) है वही दर्शन कहा जाता है । (इ) 'ततः स्वरूपसंवेदनं दर्शनमित्यङ्गीकर्तव्यम् ।' घ. १ पृ. ३८३ । अर्थ-इसलिये स्वरूपसंवेदन दर्शन है, ऐसा स्वीकार कर लेना चाहिए।
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