Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १२५३
कार्य-द्रव्यमनादि, स्यात्प्रागभावस्य निह्नवे ।
प्रध्वंसस्य च धर्मस्य, प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥ [ अष्टसहस्रो पृ० ९७ ] इसका भाव ऊपर कहा जा चुका है।
यदि सांख्यमतावलम्बी की तरह द्रव्य में अतीत अनागतवर्तमान सबपर्यायों का सद्भाव मान लिया जाय तो व्यय व उत्पाद कहना निरर्थक हो जायगा । उत्पाद-व्यय के अभाव में द्रव्य के अभाव का प्रसंग पा जायमा, क्योंकि लक्षण के अभाव में लक्ष्य का सद्भाव नहीं हो सकता। प्रतः प्रविद्यमानपर्याय का उत्पाद होता है, विद्यमान पर्याय तो पहले से ही विद्यमान थी उसका उत्पाद संभव नहीं है, श्री स्वामिकार्तिकेय आचार्य ने का
जदि दवे पज्जाया वि, विजमाणा तिरोहिदा संति । ता उप्पत्ती विहला पडिपिहिदे, देवदत्ते व ॥ २४३ ॥ सम्वाण पज्जयाणं, अविज्जमाणाण होदि उत्पत्ती। कालाई लडीए अणाइणिहणम्मि दवम्मि ॥२४४॥ [स्वा. का. अ.]
इन पार्षवाक्यों से यह सिद्ध हो जाता है कि अतीत व अनागतपर्यायें अनादिनिधन द्रव्यमें वर्तमानपर्याय के समान विद्यमान, सद्रूप या अस्तित्वरूप से नहीं है। किन्तु वर्तमानपर्यायसहित अनादिनिधन द्रव्य में शक्तिरूप से पड़ी हुई हैं। शक्ति को व्यक्ति निमित्तानुसार होती है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा भी है
रागो पसत्यभूवो, वत्थुविसेसेण फलदि विवरी ।
जाणाभूमिगवाणिह, बीजाणिव सस्सकालम्हि ॥ २५५॥ [प्रवचनसार] धीजयसेनाचार्य कृत टीका-"नामाभूमिगतानीह बीजानि इव सस्यकाले धान्यनिष्पत्तिकाल इव जघन्यमध्यमोत्कृष्टभूमिवशेन तान्येव बीजानि भिन्न भिन्नफलं प्रयच्छन्ति ।"
श्रीअमृतचन्द्राचार्यकृत संस्कृत टीका-यर्थकषामपि बोजानां भूमिपंपरीत्यानिष्पत्तिवपरीत्यं तकस्यापि प्रशस्तरागलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्रवपरीत्यात्फलवपरीत्यं, कारणविशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यंभावित्वात् ।
एक ही बीज होने पर भी नानाभूमियों के कारण उसके फल में विभिन्नता मा जाती है। उत्तमभूमि में उस बीज से उत्तमफल उत्पन्न होगा, मध्यमभूमि में उसी बीज से मध्यमफल उत्पन्न होगा, जघन्यभूमि में उसी बीज से जघन्य फलरूप पर्याय उत्पन्न होगी। बंजर-खराब भूमि में वही बीज खराब हो जायगा, उससे कोई फल उत्पन्न नहीं होगा, क्योंकि निमित्तकारण की विशेषता से पर्यायरूप कार्य में विशेषता होना अवश्यंभावी है।
इस दृष्टान्त से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक ही बीज अथवा पदार्थ में नाना-नाना प्रागामी पर्यायरूप परिणमन करने की शक्ति है। वह बीज या पदार्थ किस पर्यावरूप परिणमन करेगा यह निश्चित नहीं है क्योंकि यह भूमि आदि निमित्तकारणों पर निर्भर है। इसी बात को दूसरे दृष्टान्त द्वारा प्रवचनसार की टोका में सिद्ध किया गया है
"ययाग्निसंयोगाज्जलस्य शीतलगुणविनाशोभवति तथा व्यावहारिक जनसंसर्गात संयतस्य संयमगुणविनाशो भवतीति ज्ञात्वा तपोधनः कर्ता समगृणं गृणाधिकं वा तपोधनमाधयति तदास्य तपोधनस्य यथा शीतलभाजनसहितशीतलजलस्य शीतलगुणरक्षा भवति तथा समगुणसंसर्गात गुणरक्षा भवति । यथा च तस्यैव जलस्य कपूरशर्करादि
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