Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १३४१
अर्थात्-यदि एक वस्तु में परस्पर विरुद्ध दो धर्मों को न माना जावे तो वस्तु का ही लोप हो जायगा । जनेतर समाज एकवस्तु में दो विरुद्धधर्मों को स्वीकार नहीं करती, क्योंकि परस्पर विरुद्ध दो धर्मों को स्वीकार करने से वस्तु नित्य भी है अनित्य भी है ( ऐसा भी है, ऐसा भी है ) ऐसा भ्रमात्मक ज्ञान होने से प्रमाण ज्ञान न रहकर संशय ज्ञान हो जायगा । अनेकान्त का यथार्थ समझे बिना जैनेतर और कुछ जैन विद्वानों को भी अनेकान्त के विषय में ऐसा भ्रमात्मक ज्ञान हो गया है, इसलिये वे अनेकान्त का स्वरूप 'नित्य है अनित्य नहीं है; नियति ( पर्यायों का क्रमनियत ) है, अनियत नहीं है; काल है ( सर्वकार्य अपने नियतकाल पर होते हैं ), प्रकाल नहीं है'
कहकर एक ही धर्म को सिद्ध करते हैं, क्योंकि 'नित्य है' इसमें 'नित्य' धर्म को स्वीकार किया गया है, 'अनित्य नहीं है' इसमें 'अनित्य' धर्म को स्वीकार नहीं किया, किन्तु उसका निषेध कर नित्यधर्म के ही अस्तित्व का कथन किया गया है । अनेकान्त का ऐसा स्वरूप मानने वाले 'अनेकान्त' के मानने वाले नहीं हैं, किन्तु एकान्त मिथ्यात्व को मानने वाले हैं ।
वस्तु अनेकान्तात्मक है, इसका अर्थ यह है कि वस्तु भेदाभेदात्मक, नित्यानित्यात्मक, नियति-अनियतिआत्मक इत्यादिरूप है । परस्पर विरुद्ध दो धर्मों में से एकधर्म द्रव्यार्थिक ( निश्चय ) नय का विषय है और दूसरा पर्यायार्थिक ( व्यवहार ) नय का विषय है, क्योंकि नय का लक्षण 'विकलादेश' है अर्थात् नय एकधर्म को ग्रहण करती है ।
भेद - अभेद इन परस्पर विरोधी दो धर्मों में से यद्यपि 'भेद' निश्चयनय का विषय नहीं है, तथापि इसका यह अर्थ नहीं कि 'भेद' सर्वथा नहीं है, झूठ है, काल्पनिक है, अवास्तविक है इत्यादि । भेद के अभाव में प्रभेद के प्रभाव का प्रसंग आ जायगा, क्योंकि 'सर्व सप्रतिपक्ष' है । ऐसा जैनधर्म का मूल सिद्धान्त है ।
कहा भी है
'सव्वस्त सम्पक्खिस्वलंभादो ।' [ ज. ध. पु. १ पृ. ५३ ]
अर्थ – समस्त ( पदार्थ ) अपने प्रतिपक्ष सहित ही उपलब्ध होते हैं । 'पविक्खाभावे अप्पिदस्स वि अभावप्यसंगा ।' [ध. पु. ६ पृ. ६३ ] अर्थ -- प्रतिपक्षी के अभाव में विवक्षित के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । 'सव्वस्स सप्पडिवक्कल्स उवलं भण्णहाणुववत्तदो ।' [ध. पु. १४ पृ. २३४ ]
अर्थ -- सब सप्रतिपक्ष पदार्थों की उपलब्धि अन्यथा बन नहीं सकती । इन सब वाक्यों से सिद्ध हो जाता है कि यदि 'अभेद' है तो उसका प्रतिपक्षी भेद अवश्य है ।
'भेद' व्यवहारनय का विषय है, क्योंकि व्यवहार, विकल्प, भेद तथा पर्याय इन शब्दों का एक ही अर्थ है । गो. सा. जी. गाथा ५०२ में कहा भी है
'ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओ त एयट्ठो ।'
वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्म हैं । उनमें से एकधर्म निश्चयनय का विषय है और दूसरा धर्म व्यवहारनय का विषय है । दोनों धर्म सत्यार्थ हैं, इसलिये दोनों नयों का विषय भी सत्यार्थ है । जब दोनों नयों का विषय भी सत्यार्थ है तो दोनों नय भी सत्यार्थ हैं ।
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