Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १३५१
श्री वृहद्रव्यसंग्रह गाथा १४१ की टीका में इसप्रकार लिखा है-अत्र व्यवहारसम्यक्त्वमध्ये निश्चयसम्यक्त्वं किमर्थं व्याख्यातमितिचेद ? व्यवहारसम्यवत्वेन निश्चयसम्यक्त्व साध्यते इति साध्यसाधनभावज्ञापनार्थमिति ।
अर्थ - प्रश्न यहाँ इस व्यवहारसम्यक्त्व के व्याख्यान में निश्चयसम्यक्त्व का वर्णन क्यों किया ? उत्तर - व्यवहारसम्यक्त्व से निश्चयसम्यक्त्व साधा जाता है । इस साध्यसाधनभाव को बतलाने के लिये व्यवहारसम्यक्त्व के व्याख्यान में निश्चयसम्यक्त्व का वर्णन किया है ।
श्री वृहद्रव्यसंग्रह गाथा १३ की टीका में भी इसप्रकार लिखा है - अर्हत्सर्वज्ञप्रणीत निश्चयव्यवहारनय साध्यसाधकभावेन मन्यते इत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम् ।
अर्थ — अविरतसम्यक्त्वी यह मानता है कि तू सर्वज्ञ के कहे हुए निश्चयनय साध्य हैं, व्यवहारनय साधक है ।
साधन का अर्थ इसप्रकार है— क्रियोत्पादक हेतुभेदे । क्रियायाः परिनिष्पत्तिर्यद् व्यापारादनन्तरम्, विवक्ष्यते यदा यत्रकरण तत्तदास्मृतम् । अर्थात् क्रिया की उत्पत्ति में जो हेतु ( कारण ) होता है वह 'साधन' अथवा जिस व्यापार के अनन्तर ( पश्चात् ) क्रिया की निष्पत्ति होती है वह व्यापार साधन कहलाता है । अथवा जिस भाव प्रवर्ते बिना जो अगला भाव न प्रवर्ते वह भावसाधन कहलाता है ।
उपर्युक्त श्रागमप्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि व्यवहार साधन है जो पहले होता है और निश्चय साध्य है जो व्यवहार के होने पर होता है । अर्थात् व्यवहार के अनन्तर होता है । श्रतः सोनगढ़ के निम्न मतों का स्वतः खण्डन हो जाता है—
( १ ) पहले व्यवहार फिर निश्चय ऐसा मानने वाला मिथ्यादृष्टि | ( आत्मधर्म विशेषांक, वर्ष ९ ) (२) निश्चयरत्नत्रय मोक्षमार्ग है और व्यवहाररत्नत्रय उससे विपरीत अर्थात् बन्धमार्ग है ।
( आत्मधर्म नं ० १३४ पृष्ठ ३९ ) (३) व्यवहार करते-करते उसके श्राश्रय से निश्चयरत्नत्रय हो जाएगा, ऐसा जो मानता है, उसकी श्रद्धा विपरीत है । ( आत्मधर्म नं० १३४ पृ० ३९ )
(४) व्यवहारसम्यग्दर्शन निश्चयसम्यग्दर्शन का कारण नहीं है ( सोनगढ़ मोक्षशास्त्र पृ० १३७ )
[ पण्डित लोग किसी द्वेषबुद्धि से श्री कानजीस्वामी के मत का खण्डन नहीं करते । वे तो प्रामाणिक प्राचीन प्राचार्य रचित दि० जैनशास्त्र के अनुकूल व्याख्यान करते । यदि श्रागम अनुकूल व्याख्यान से दिगम्बर जैन श्रागमविरुद्ध मान्यताओं का खण्डन होता हो तो इसमें पण्डितों का क्या दोष । इसमें तो श्रागमविरुद्ध कथन करने वालों का दोष है । ]
व्यवहाररत्नत्रय पहले होता है, तत्पश्चात् निश्चयरत्नत्रय
शंका -- व्यवहार सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र का कारण है या नहीं ? व्यवहाररत्नत्रय पहले होता है या निश्चयरत्नत्रय पहले होता है ?
Jain Education International
-जै. सं. 14-11-57 / ........
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org