Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१३५८ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
करो, यदि भय है तो हिंसा को छोड़ो' ( समयसार गाथा ३४४ तात्पर्यवृत्ति टीका ) इस कथन से यह सिद्ध हुआ कि जो व्यवहारनय को वास्तविक नहीं मानते उनको नरक के दुःखों से भय नहीं, किन्तु प्रीति है इसलिये वे हिंसादिपापों का त्याग नहीं करते ।
नियमसार गाथा १५९ में कहा है कि केवली भगवान सर्वपदार्थों को जानते देखते हैं यह कथन व्यवहारनय से है, परन्तु नियम करके अर्थात् निश्चयकरके केवलज्ञानी अपने आत्मस्वरूप को ही जानते-देखते हैं
जाणदि पस्सदि सव्वं, ववहारणएण केवलीभगवं ।
केवलणाणी जाणदि, पस्सदि नियमेण अप्पाणं ॥ नि. सा. १५९ ॥
यदि शंकाकार कथित चाबी ( Master Key ) के द्वारा इस गाथा का अर्थ खोला जावे तो व्यवहारनय का यह कथन 'कि केवली भगवान सर्वपदार्थों को देखते जानते हैं' असत्यार्थ है, प्रवास्तविक है जिससे सर्वज्ञता का अभाव हो जाता है । सौगत- बौद्ध भी व्यवहारनय से सर्वज्ञ को स्वीकार करते हैं और व्यवहारनय को असत्यार्थ मानते हैं, फिर सौगत और जैनधर्म में कोई अन्तर नहीं रहेगा । इस विषय में समयसार गाथा ३६५ की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने इसप्रकार कहा है- 'यहाँ पर शिष्य ने कहा कि सौगत भी कहता है कि व्यवहार से सर्वज्ञ है, उसको दूषण क्यों दिया जाता है ? इसका समाधान आचार्य करते हैं कि बौद्धादिकों के मत में जैसे निश्चय की अपेक्षा व्यवहार मिथ्या है वैसे व्यवहाररूप से भी व्यवहार सत्य नहीं है परन्तु, जैनमत में व्यवहारनय यद्यपि निश्चयनय की अपेक्षा से मिथ्या है तो भी व्यवहाररूप से सत्य है । यदि लोकव्यवहार व्यवहाररूप से भी सत्य न होय तो सर्व ही लोकव्यवहार मिथ्या हो जावे, ऐसा होने पर अतिप्रसंग हो जाय अर्थात् प्रसंग से बाहर हो जाय इससे यह कहना ठीक है कि यह आत्मा व्यवहारनय से परद्रव्य को देखता जानता है, परन्तु निश्चय से तो अपने ही आत्मद्रव्य को देखता - जानता है ।'
जब व्यवहारनय को सर्वथा असत्यार्थं कहने वाला यह विचारकर कि 'प्राण प्राण हैं । अन्न अन्न है । अन्न प्रारण नहीं, प्रारण अन्न नहीं । अन्न को प्रारण कहना सर्वथा असत्यार्थ है ।' अन्न त्याग देता है और अपने प्राणों का नाश करने लगता है अर्थात् मरण को प्राप्त होने लगता है तब अनेकान्तवादी कार्यकारण की यथार्थता के द्वारा व्यवहारनय को सत्यार्थं दिखाकर उसके प्राणों की रक्षा करता है अर्थात् नाश नहीं होने देता ।
जब व्यवहारनय को असत्यार्थ कहनेवाला यह विचारकर कि 'घी का घड़ा कहना उपचार है, सर्वथा श्रसत्यार्थं । घी तो घी है और घड़ा घड़ा है। घी घड़ा नहीं है और घड़ा घी नहीं है । घड़े के नाश से घी का नाश नहीं और घी के नाश से घड़े का नाश नहीं है ।' घी से भरे हुए मिट्टी के घड़े को ग्रीष्मकाल की दोपहर की धूप में रेत पर रखकर और घड़े को फोड़कर घी को रेत में मिलाने को तैयार होता है तब अनेकान्तवादी श्राधारश्रधेय की यथार्थता के द्वारा व्यवहारनय को सत्यार्थ दिखाकर घी की रक्षा करता है ।
जब व्यवहारनय को असत्यार्थ कहनेवाला यह कहकर 'अर्हन्त की दिव्यध्वनि कहना असत्यार्थ है, दिव्यध्वनि तो शब्दमयी पुद्गल जड़ है और अर्हन्त चेतनमयी आत्मा है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्त्ता नहीं होता अतः दिव्यध्वनि का कर्त्ता पुद्गल है और अर्हन्त नहीं है, दिव्यध्वनि ( जिनवाणी ) की प्रमाणता का नाश ( प्रभाव ) करता है तब अनेकान्तवादी निमित्त नैमित्तिक की यथार्थता के द्वारा व्यवहारनय को सत्यार्थ दिखाकर जिनवाणी की प्रमाणता की रक्षा करता है ।
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