Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
श्री वेवसेनाचार्य ने भी कहा है--निविशेष हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत् ।' विशेषरहित सामान्य निश्चय से गधे के सींग के समान है। इसीलिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है कि द्रव्य और पर्याय इन दोनों का अनन्यपना है।
पज्जयविजुदं दन्वें दश्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि ।
दोण्हं अणण्णभूदं भावें समणा परूवित्ति ॥ पंचास्तिकाय गाथा १२ पर्याय ( विशेष ) से रहित द्रव्य ( सामान्य ) और द्रव्य ( सामान्य ) से रहित पर्याय ( विशेष ) नहीं होती, क्योंकि दोनों का अनन्यपना है।
-णे.ग. 12-12-74/VI/गं. म. सोनी प्रशुद्धतर नय का अभिप्राय शंका-धवल पुस्तक १ पर सम्यक्त्व के तीन लक्षण दिये हैं, उनमें अशुद्धनय से क्या तात्पर्य है ?
समाधान-ध.पु. १ पृ. १५१ पर (१) शुद्धनय के आश्रय से सम्यक्त्व का लक्षण प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य की प्रकटता है; (२) तत्त्वार्थ अर्थात् आप्त, प्रागम और पदार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते यह लक्षण अशुद्धनय की अपेक्षा से है; (३) अशुद्धतरनय की अपेक्षा तत्त्वरुचि को सम्यक्त्व' कहते हैं।
प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और पास्तिक्य ये जीव के परिणाम हैं। सम्यग्दर्शन भी जीव के श्रद्धागूण की पर्याय है । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, प्रास्तिक्यलक्षण और सम्यग्दर्शन लक्षण एकद्रव्य के प्राश्रय होने से सद्भूतव्यवहारनय का विषय है, क्योंकि 'तत्रैकवस्तुविषयः सद्भूतव्यवहारः' ऐसा सूत्रवाक्य है। ध. पु. १ पृ. १५१ पर असद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से सद्भूतव्यवहारनय को शुद्धनय कहा गया है । निश्चयनय की अपेक्ष सम्भव नहीं है, क्योंकि "निश्चयनयोऽभेद विषयः' ऐसा सूत्र है। यहाँ पर शुद्धनय से प्रयोजन निश्चयनय से नहीं हो सकता है।
आप्त, पागम, पदार्थ का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, यह लक्षण असद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से है, क्योंकि प्राप्त, पागम, पदार्थ श्रद्धय और जीव की पर्याय श्रद्धान, ये दोनों भिन्नवस्तु हैं । 'भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहारः' ऐसा आर्षवाक्य है । सद्भूतव्यवहारनय की दृष्टि से असद्भूतव्यवहारनय को अशुद्ध कहा गया है।
यद्यपि तत्त्वरुचि लक्षण भी असद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से है, किन्तु श्रद्धा और रुचि शब्दों के अर्थभेद के कारण 'तत्त्वरुचि' लक्षण को अशुद्धतरनय कहा गया है। श्रद्धान का अर्थ है विपरीता-भिनिवेश से रहित होना । इच्छा प्रकट करना रुचि है। कहा भी है
मातिय अधाति च तत्र विपरीताभिनिवेशरहितो भवति । रोचेदि य रोचते च मोक्षकारणतया तत्रव रुचिकरोति ।'
रुचि की अपेक्षा श्रद्धा शब्द सम्यग्दर्शन के अति निकट है, अतः तत्त्वश्रद्धानलक्षण की अपेक्षा तत्त्वरुचिलक्षण को अशुद्धतरनय से कहा गया है। नयशास्त्र के ज्ञान बिना आगम का यथार्थबोध नहीं हो सकता है।
-जं. ग. 10-12-70/VI/ र. ला. जैन
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