Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
(अ) 'वीतरागता' निश्चय तथा व्यवहारनय के साध्य-साधकरूप से परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा से ही होती है। बिना अपेक्षा के एकान्त से मुक्ति की सिद्धि नहीं हो सकती। जो निश्चय-व्यवहार को परस्पर साध्य-साधक समझकर व्यवहार करते हैं वे ही मुक्ति के पात्र होते हैं। (पंचास्तिकाय गाथा १७२ श्री जयसेन स्वामी की टीका)।
(ब) सर्वज्ञदेव प्रणीत निश्चय-व्यवहारनय को साध्य-साधकभाव से मानता है, परन्तु भूमि की रेखा के समान क्रोध आदि अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से आत्मनिन्दासहित होकर इंद्रियसुख का अनुभव करता है वह 'अविरतसम्यग्दृष्टि' चौथे गुणस्थानवर्ती है । ( वृहद्रव्यसंग्रह गाथा १३ की टीका )।
___ यदि यहाँ पर तर्क की जावे कि व्यवहाररत्नत्रय तो स्वपर-प्रत्यय आश्रित, भिन्न साध्य-साधनभावी भेदमयी और रागसहित है, किन्तु निश्चयरत्नत्रय तो निजशुद्धात्माश्रित, अभिन्न साध्य-साधनभावी, अभेदमयी है और रागरहित है अतः 'व्यवहाररत्नत्रय' निश्चयरत्नत्रय का कारण नहीं हो सकती। कारण के समान कार्य होता है ऐसा न्याय है।
इसका समाधान यह है कि-कारण के समान कार्य होता है, किन्तु कारण-कार्य सर्वथा समान नहीं होते, एकदेश समान होते हैं। यदि कारण-कार्य सर्वथा समान हो जावें तो कारण-कार्य में भेद का अभाव हो जाने से दोनों एक हो जावेंगे। इसप्रकार कारण-कार्य का ही प्रभाव हो जावेगा। अतः कारण-कार्य कथंचित् समान कथंचित् असमान होते हैं ऐसा अनेकान्त है एकान्त नहीं है ।
जैसे मृतिका (मिट्टी का ) पिंड तथा मिट्टी के घड़े में मिट्टी की अपेक्षा से समानता है किन्तु पिंड व घट पर्याय की अपेक्षा से असमानता है। यदि इस अपेक्षा से भी असमानता न हो तो मिट्टी के पिंड से ही जलधारण क्रिया होने लगेगी।
जैसे १५ वानी का स्वर्ण १६ वानी के स्वर्ण के लिये कारण है। स्वर्ण की अपेक्षा से १५ वानी स्वर्ण व १६ वानी ( शुद्ध ) स्वर्ण में समानता है, किन्तु शुद्धता और अशुद्धता की अपेक्षा दोनों में असमानता है। यदि इस अपेक्षा से भी दोनों समान हों तो स्वर्ण को सोलहवां ताप देने की आवश्यकता नहीं थी।
इसीप्रकार व्यवहाररत्नत्रय व निश्चयरत्नत्रय में कथंचित् असमानता है, किन्तु रत्नत्रय की अपेक्षा समानता है। व्यवहाररत्नत्रय के पाक की प्रकर्षता ही तो निश्चयरत्नत्रय है। ( इस विषय के सम्बन्ध में वृ० व्यसंग्रह गाथा ३४ की टीका देखनी चाहिये )।
उपर्युक्त प्रागम प्रमाणों से यह सिद्ध हो गया कि निश्चयरत्नत्रय ( कार्य ) साध्य है और व्यवहाररत्नत्रय साधक ( कारण ) है। ऐसा श्रद्धान करने से ही सम्यग्दर्शन तथा मुक्ति की प्राप्ति होगी। अन्य प्रकार श्रद्धान करने से सम्यग्दर्शन तथा मुक्ति की सिद्धि नहीं हो सकती।
-जं. सं. 26-12-57/ पवनकुमार जैन यावत छमस्थ जीवों के प्रशुद्धनिश्चयनय होता है शंका-मिथ्याहृष्टि गुणस्थान से क्षीणकषाय गुणस्थान तक अशुद्धनिश्चयनय अथवा व्यवहारनय होता है यह कथन किसप्रकार ठीक है ?
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