Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : प्रतिशंका-एक कारण से भिन्न-भिन्न कार्यों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? वेश्या के मृतकशरीर के देखने से साधु, कामीपुरुष व कुत्ते के भिन्न-भिन्न भाव पाये जाते हैं। कार्य के हो जाने पर ही कारण का केवल आरोप किया जाता है । अतः कार्य अर्थात् निश्चय प्रथम होता है और कारण का उपचार अर्थात् व्यवहार, निश्चय के पश्चात् होता है।
समाधान-एकद्रव्य में अनन्त गुण पाये जाते हैं। अतः भिन्न-भिन्न गुणों की अपेक्षा एक कारण से अनेककार्यों की उत्पत्ति में कोई विरोध नहीं है। जैसे एकअग्नि के निमित्त से भात का पकना, कपड़े का जलना और प्रकाश आदि अनेक कार्य होते हुए पाये जाते हैं । अथवा अन्यद्रव्य के संयोग से एक ही कारण से अनेककार्य होने में कोई विरोध नहीं है। एक ही औषधि को यदि उष्णजल के साथ सेवन किया जावे तो उसका परिणाम प्रत्य प्रकार का होगा, यदि उसी औषधि को शीतलजल के साथ सेवन किया जावे तो उसका परिणाम अन्यप्रकार का होगा। वेश्या के मृतकशरीर के दृष्टान्त में साधु को असमान जाति मनुष्यपर्याय कारण पड़ी कि यह अमूल्य मनुष्य भव वृथा विषय भोगों में खो दिया । कामी पुरुष को वेश्या का रूप कारण पड़ा जिससे उसके विषय सेवन की इच्छा हुई और कुत्ते को रस गुण कारण पड़ा जिससे उसके मांस-भक्षण के भाव हुए। अथवा साधु, कामी पुरुष और कुत्ते के भिन्न-भिन्न प्रकार की कषाय थी जिनके संयोग से एक ही कारण से अनेक कार्यों की उत्पत्ति हई। श्री वीरसेन स्वामी ने भी कहा है-'कधं पुण एसो जिणिदणमोक्कारो एक्को चेव संतो अणेयकज्जकारओ? ण, अणेयविहणाणचरण सहेज्जस्स अणेयकज्जुप्पायणेविरोहाभावादो।'
अर्थ-तो फिर यह जिनेन्द्र नमस्कार एक ही होकर अनेककार्यों का करनेवाला कैसे होगा? नहीं. क्योंकि अनेक प्रकार के ज्ञान व चारित्र की सहायता युक्त होते हुए उसके अनेककार्यों के उत्पादन में कोई विरोध नहीं है (ष.खं. पु. ९ पृ. ४) । अतः कार्य (निश्चय) के पश्चात् कारण (व्यवहार) कहना किसी भी पागम या युक्ति से सिद्ध नहीं होता । यदि कहीं पर किसी प्रागम में 'प्रथम निश्चय फिर व्यवहार', ऐसा कहा हो तो शंकाकार उस आगम को प्रमाणस्वरूप में उपस्थित करे, जिससे उस पर विचार हो सके।
-f. ग. 14, 21-2-63/IX/ हरीचन्द व्यवहारपूर्वक निश्चय होता है शंका-लोग मोक्ष के असली स्वरूप को नहीं समझते अतः वास्तविकस्वरूप का ज्ञान कराने के लिये निश्चयपूर्वक ही व्यवहार के द्वारा शुद्धस्वरूप का ज्ञान कराने वास्ते उन्होंने ( श्री कानजीस्वामी ने ) ग्रन्थों की रचना की। फिर भी पण्डित उनसे बिना कारण द्वषबुद्धि कर मनोज्ञवक्ता की निन्दा कर कर्म का खोटा बन्ध कर रहे हैं। .
समाधान-शंकाकार के कहने का प्राशय यह है कि निश्चयपूर्वक ही व्यवहार होता है। जैसा कि श्री कानजीस्वामी ने चैत्र २४८० के विशेषाङ्क आत्मधर्म पृ० ४२३ पर इसप्रकार लिखा है-'पहले व्यवहार और फिर निश्चय ऐसा माननेवालों के अभिप्राय में और अनादिकालीन मिथ्यादृष्टि के अभिप्राय में कोई अन्तर नहीं है, दोनों व्यवहारमूढ़ हैं ।' फिर पण्डित लोग श्री कानजीस्वामी के इस मतका खण्डन क्यों करते हैं ?
१. नोट-निमित्त-दृष्टि से देखने पर इसे ऐसा भी कहा जा सकता है कि एक वेश्या के मृतारीररूप निमित्त में कितनी शक्ति है कि उसने तीन जनों में तीन भिन्न-१ परिणाम करा दिये।
-सम्पादक
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