Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
सुद्धो सुद्धादेसो, णायव्यो परमभावदरिसीहि ।
ववहारदेसिदा पुण, जे दु अपरमेट्ठिदा भावे ॥१२॥ अर्थ-जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान हुए तथा पूर्णज्ञान चारित्रवान हो गये उन्हें तो शुद्धात्मा का उपदेश करनेवाला शुद्धनय जानने योग्य है। और जो जीव अपरमभाव अर्थात् श्रद्धा तथा चारित्र के पूर्णभाव को नहीं पहुँच सके हैं, साधक अवस्था में ही स्थित हैं वे व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं । व्यवहार को तीर्थ और निश्चय को तीर्थफल कहा है 'तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात्' । [समयसार गाथा नं० १२ पर आत्मख्याति टीका] उक्त हिन्दीअनुवाद में इसका भावार्थ कोष्ठक में इसप्रकार दिया है "जिससे तिरा जाय वह तीर्थ है ऐसा व्यवहारधर्म है और पार होना व्यवहार धर्म का फल है।' जो मनुष्य पार हो गया उसको तिरने की क्या आवश्यकता है। अतः निश्चय के पश्चात् व्यवहार होता है, ऐसा कहना निरर्थक है।
प्रतिशंका-जिस मनुष्य को शुद्ध आत्मस्वरूप का ही निश्चय नहीं हुआ वह उसकी प्राप्ति का उपाय कैसे करेगा। जिसप्रकार बम्बई का निश्चय हो जाने पर ही बम्बई जाने का प्रयत्न होता है। अतः प्रथम निश्चय पश्चात् व्यवहार होता है।
समाधान-यह दृष्टान्त विषम है। इस दृष्टान्तद्वारा निश्चयसम्यक्त्व के पश्चात् व्यवहारचारित्र सिद्ध किया गया है, परन्तु इस दृष्टान्त से यह सिद्ध नहीं होता कि निश्चयसम्यक्त्व के पश्चात व्यवहारसम्यक्त्व या निश्चयचारित्र के पश्चात् व्यवहारचारित्र होता है। जिस हेतु द्वारा बम्बई का निश्चय किया गया वह हेतु ही तो व्यवहार है। इसीप्रकार जो तत्त्वोपदेशादि प्रात्मस्वरूप के निश्चय में कारण है वह व्यवहार है, क्योंकि, पंडितवर दौलतरामजी ने छहढाला की तीसरीढाल में व्यवहार को 'हेतु नियत को होई' ऐसा कहा है। इसीप्रकार आराधनामार गाथा १२ में कहा है कि व्यवहार-पाराधना निश्चय-पाराधना का कारण है। अतः प्रथम तत्त्वोपदेशादि की प्राप्ति ( व्यवहार ) पश्चात् आत्मस्वरूप का निश्चय होता है।
प्रतिशंका-निश्चय हो जाने पर ही पर में कारणपने का उपचार किया जाता है। जब तक निश्चय की प्राप्ति न हो जावे तब तक किसी में कारणपने का आरोप करना कैसे सम्भव है ? अतः प्रथम निश्चय पश्चात् व्यवहार होता है।
समाधान-जिस पदार्थ में 'कारणपने' का उपचार किया जाता है, उस पदार्थ में कारणपने की शक्ति पहले से ही थी या कार्य होने के पश्चात् आई है ? यदि कारणपने की शक्ति पहले से ही थी तो कार्य पश्चात कारणपने का आरोप किया जाता है, यह कहना नहीं बनता। यदि कार्य के पश्चात् कारणशक्ति उत्पन्न हुई तो वह कारणशक्ति कार्य की उत्पत्ति में अकिचित् कर रही; क्योंकि कार्य तो पहले ही हो चुका था। यदि यह कहा जावे विकारापने की कोई शक्ति नहीं है, कारणपने की केवल कल्पना करली जाती है। तो उस पर यह प्रश्न उठता है कि प्रतिविशिष्ट पदार्थ में ही कारणपने की कल्पना क्यों की जाती है। घट की उत्पत्ति में कुम्भकार को ही क्यों कारण कहा जाता है? उसके छोटे-छोटे बालकों को जो घट की उत्पत्ति के समय वहाँ खेल रहे थे. घट की उत्पत्ति में कारण क्यों नहीं कहा जाता । अतः यह सिद्ध हो जाता कि कारपना काल्पनिक नहीं है। जिसमें कारणपने की शक्ति होती है उसी को कारण कहा जाता है। धर्मद्रव्य का लक्षण गतिहेतुत्व, अधर्मद्रव्य का लक्षण स्थितिहेतुत्व और आकाशद्रव्य का अवगाहनहेतुत्व कहा है--
गमणणिमित्तं धम्ममधम्म ठिदि जीवपुग्गलाणं च । अवगहणं आयासं, जीवादी सव्वदध्वाणं ॥३०॥ नियमसार
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