Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थात् एकद्रव्य विर्षे क्रमभावी परिणाम हैं ते पर्याय हैं जैसे प्रात्मा विष हर्ष-विषाद अनुक्रमत होय हैं ते पर्याय हैं। इस कथन से यह स्पष्ट है कि सामान्य के बिना 'विशेष' और विशेष के बिना 'सामान्य' नहीं होता। एकका कथन करने पर दूसरे का कथन हो ही जाता है।
पर्याय ( विशेष ) का कथन करने वाला 'व्यवहारनय' है और द्रव्य ( सामान्य ) का कथन करनेवाला 'निश्चयनय' है । कहा भी है-'व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितत्वात् । निश्चयनयस्तु द्रव्याधितत्वात् ।'
( स. सा. गाथा ५६ आत्मख्याति टीका) 'पर्याय' का मुख्यरूप से कथन करने पर 'द्रव्य' का गौणरूप से कथन हो जाता है और 'द्रव्य' का मुख्यरूप से कथन करने पर 'पर्याय' का गौणरूप से कथन हो जाता है अतः व्यवहारनय से भी वस्तु का ज्ञान निश्चयनय से भी वस्तु का ज्ञान होता है क्योंकि दोनों नय सापेक्ष हैं।
निश्चयनय व व्यवहारनय इन दोनों नयों से वस्तु का ज्ञान होता है तो समयसार में 'निश्चयनय' को भूतार्थ और 'व्यवहारनय' को अभूतार्थ क्यों कहा गया ? 'भूतार्थ' का अर्थ है जो 'एक' में हो और 'अभूतार्थ' का अर्थ जो 'एक' में न हो किन्तु अपने होने में दूसरे (अन्य ) की भी अपेक्षा रखता हो। निश्चयनय का विषय 'सामान्य' है। 'सामान्य' अनादि-अनन्त होने से अकार्य-अकारण है और उत्पाद-व्ययरहित है। अतः निश्चयनय का विषय 'सामान्य' मात्र एक द्रव्य में होने से और अन्य की अपेक्षा न रखने से भूतार्थ है। किन्तु व्यवहारनय का विषय 'पर्याय' है । 'पर्याय' की उत्पत्ति प्रतिसमय होती है। वह उत्पत्ति अंतरंग ( स्व ) और बहिरंग (पर) के निमित्तवश होती है। कहा भी है-'उभयनिमित्तवशाद भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः । मृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् ।' ( स. सि. अ. ५ सू. ३०।)
अर्थात अन्तरंग और बहिरंग निमित्त के वशसे प्रतिसमय जो नवीनअवस्था की प्राप्ति होती है उसे उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टी के पिंड की घटपर्याय । इसप्रकार व्यवहारनय के विषय 'पर्याय' की उत्पत्ति मात्र एक 'स्व' से न होकर स्व और पर इन दो के निमित्त से होने के कारण 'अभूतार्थ' है।
निश्चयनयनिरपेक्ष 'व्यवहार' व्यवहाराभास है, किन्तु निश्चयनयसापेक्ष व्यवहारनय सुनय है। अरहंतभगवान की पूजन होती है। अरहंत का स्वरूप बिना जाने परहंतपूजन होती नहीं है। जो अरहंत को द्रव्यपने, गणपने और पर्यायपने से जानता है वह अपनी आत्मा को जानता है और उसका मोह होता है। (प्र. सा. गा.८०)। जो अरहंत का स्वरूप जानकर पूजन करता है उसकी क्रियायें व्यवहाराभास कैसे हो सकती हैं ? समयसार तो सर्वनयपक्ष से रहित है। कहा भी है-'सवणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो' और इस समयसार को सम्यग्दर्शन कहते हैं । ( समयसार गाथा १४४ )।
-ज.स. 13-3-58/VI/ गलाबचन्द शाह, लाकर
१. 'प्रथम निश्चय, फिर व्यवहार'; यह मान्यता जिनवाणी के विरुद्ध है
२. कार्य को नहीं उत्पन्न करने पर भी कारणपने का अस्तित्व
शंका-व्यवहार पूर्वक निश्चय अथवा निश्चय पूर्वक व्यवहार ? क्या प्रथम व्यवहार होता है ? फिर निश्चय होता है या प्रथम निश्चय फिर व्यवहार होता है ?
समाधान-प्रथम व्यवहार फिर निश्चय होता है, क्योंकि व्यवहार कारण और निश्चय कार्य है। अनादिकाल से मिथ्यात्व के कारण परिभ्रमण करते हुए इस जीव को सर्वप्रथम प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है।
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