Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ।
[ १३४३
कहा है-'प्रमाणनयैरधिगमः ।' अर्थात् 'प्रमाण और नय से वस्तु का ज्ञान होता है ।' प्रमाण और नय से उत्पन्न वाक्य भी उपचार से प्रमाण और नय है, उन दोनों से उत्पन्न उभयबोध विधि-प्रतिषेधात्मक वस्तु को विषय करने के कारण प्रमाणता को धारण करते हए भी कार्य में कारण का उपचार करने से प्रमाण व नय है, इसप्रकार सूत्र में ग्रहण किये गये हैं। नयवाक्य से उत्पन्नबोध प्रमाण ही है, नय नहीं है, इस बात के ज्ञापनार्थ "उन दोनों से वस्तु का ज्ञान होता है' ऐसा कहा जाता है । (१० ख० पु० ९ पृ० १६४ )।
उक्त आगमप्रमाणों से यह स्पष्ट है कि नय के द्वारा वस्तु का यथार्थ ज्ञान होता है इसलिए 'नय' मोक्ष का कारण है। यहाँ पर यह नहीं कहा गया कि निश्चयनय तो मोक्ष का कारण है और व्यवहारनय मोक्ष का कारण नहीं है । निश्चय या व्यवहार कोई भी नय हो यदि अन्यनय सापेक्ष है तो सुनय है, मोक्ष का कारण है यदि अन्यनय निरपेक्ष है तो मिथ्यात्व व संसार का कारण है।
व्यवहारनय और निश्चयनय का स्वरूप अनेक प्रकार से कथन किया गया है उन सबका यहाँ पर लिखना असम्भव है फिर भी कुछ लक्षण इसप्रकार हैं
बंधक और मोचक अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होनेवाले और उससे वियुक्त होनेवाले परमाणु की भाँति आत्मद्रव्य 'व्यवहारनय' से बंध और मोक्ष में हूँत का अनुसरण करनेवाला है। अकेले बध्यमान और मुच्यमान ऐसे बंधमोक्षोचित स्निग्धत्व-रूक्षत्वगुणरूप परिणत परमाणु की भाँति प्रात्मद्रव्य निश्चयनय से बंध और मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करनेवाला है। (प्र. सा. परिशिष्टनय नं० ४४ व ४५)।
यहाँ पर यह कथन किया गया है कि प्रात्मा द्रव्यकर्मों से बंधता और मुक्त होता है यह तो व्यवहारनय का विषय है। इस कथन में यह गौण है कि आत्मा अपने रागादिभावों से द्रव्यकर्म से बंधता और वीतरागभाव के कारण द्रव्यकर्म से मुक्त होता है, क्योंकि रागादि व वीतरागभावों के बिना आत्मा कर्मों से बद्ध व मुक्त नहीं हो सकता जैसा कि समयसार गाथा १५० में कहा है—'रत्तोबंधदि कम्म मुचदि जीवो विरागसंपत्तो।'
निश्चयनय के इस कथन में 'कि आत्मा अपने रागादिभावों से बंधता है और वीतरागभावों से मुक्त होता है' यह बात गौण है कि आत्मा अपने भावों के कारण कर्मों से बंधता व मुक्त होता है, क्योंकि दूसरे द्रव्य के संयोग के बिना अकेला द्रव्यबंध को प्राप्त नहीं हो सकता है। 'मोक्ष' बंधपूर्वक होता है । जब अकेले द्रव्य में बंध ही नहीं तो मोक्ष का कथन ही नहीं हो सकता है। इसप्रकार निश्चयनय व व्यवहारनय के द्वारा एक ही पदार्थ का
वहारनय में 'द्रव्यबंध' मुख्य है 'भावबंध' गौरण है। निश्चयनय के कथन में 'भावबंध' मख्य है 'द्रव्यबंध' गौरण है। कहा भी है-'अपितानपितासिद्धः ॥३२॥' ( मो. शा. अ. ५) मुख्य व गौण से वस्तु की सिद्धि होती है।
सामान्य ( द्रव्य ) विशेष ( पर्याय ) रूप वस्तु है । विशेषों (पर्यायों ) में अनुवृत्त (अन्वय) रूप से स्थित रहनेवाला 'सामान्य' ( द्रव्य ) है । कहा भी है—'परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्द्धता मृदिव स्थासाविषु ॥५॥'
अर्थात्-पूर्वकालभावी और उत्तरकालभावी विशेष-पर्याय तिनविष व्यापने वाला जो द्रव्य सो ऊर्ध्वता सामान्य है । जैसे स्थास, कोश, कुसूल आदि मृतिका की अवस्थावि मृतिका व्यापी है। उस सामान्य (द्रव्य) का क्रम से होनेवाला परिणमन सो विशेष (पर्याय) है । कहा भी है-'एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया आत्मनि हर्षविषादादिवत् ॥८॥ ( परीक्षा मुख अध्याय ४ )
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