Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 478
________________ १३४२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : . दोनों नयों के व्याख्यान को समान सत्यार्थ मानने को जो भ्रम बतलाते हैं वे स्वयं भ्रम में पड़े हुए हैं, क्योंकि उन्होंने नय के यथार्थस्वरूप को नहीं समझा है अथवा वे एकांत मिथ्यादृष्टि हैं। कहा भी है णिययवयणिज्जसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा ।. ते उण ण विट्ठसमओ विभयह सच्चे व अलिए वा ॥ ज.ध. पु. १ पृ. २५७ अर्थ-ये सभी नय अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं और दूसरे नयों के निराकरण में मूढ़ हैं। अनेकांतरूप समय के ज्ञाता पुरुष 'यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है' इसप्रकार का विभाग नहीं करते। श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने भी समयसार गाथा १४ की टीका में कहा है 'आत्मनोनादिबद्धस्य बद्धस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकांततः पुद्गलस्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्ण........।' अर्थ-अनादिकाल से बंध को प्राप्त हुए प्रात्मा का, पुद्गल से स्पशितरूप पर्याय की अपेक्षा (व्यवहारनय की दृष्टि से ) अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता भूतार्थ है, तथापि पुद्गल से किंचित्मात्र भी स्पशित न होने योग्य आत्मस्वभाव की अपेक्षा ( निश्चयनय से ) अनुभव करने पर बद्ध-स्पृष्टता अभूतार्थ है। यहाँ पर अभूतार्थ का अर्थ सर्वथा झूठ है ऐसा नहीं है, किन्तु निश्चयनय का विषय नहीं है। यह अर्थ ग्रहण करना चाहिये। 'भेद' वस्तु का धर्म है जो वास्तविक है झूठ नहीं है और व्यवहारनय का विषय है। -जं. ग. 8-10-64/IX/ जयप्रकान सापेक्षनय मोक्ष का कारण है निश्चय निरपेक्ष व्यवहार व्यवहाराभास है, अरहंत का स्वरूप जानकर उनकी पूजा करना व्यवहारामास नहीं है शंका व्यवहार और निश्चयनय का परस्पर स्वरूप क्या विपरीत है या एक दूसरे का पूरक है ? कई लोगों की ऐसी मान्यता है कि यदि दृष्टि में निश्चयनय का लक्ष्य नहीं है तो वह 'व्यवहार' व्यवहाराभास है। हमारे बहुत से पूर्वज निश्चयनय को नहीं जानते तो क्या उनकी पूजनादि सब क्रियायें व्यवहाराभासकोटि की हैं ? आप उक्तमत से कहाँ तक सहमत हैं ? विस्तारपूर्वक समझाइये । ___समाधान-नय का लक्षण इसप्रकार है-'उच्चारण किये गये अर्थपद और उसमें किये गये निक्षेप को देखकर ( समझकर ) पदार्थ को ठीक निर्णयतक पहुँचा देते हैं, इसलिये वे 'नय' कहलाते हैं ॥३॥ अनेक गुण और अनेकपर्यायोसहित, अथवा उनके द्वारा एक परिणाम से दूसरे परिणाम में, एकक्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में और एककाल से दूसरे काल में अविनाशी स्वभावरूप से रहनेवाले द्रव्य को ले जाता है अर्थात् द्रव्य का ज्ञान करा देता है उसे नय कहते हैं ॥४॥' ष० ख० पु० १० १०-११। नयका कथन इसलिये किया जाता है कि-'यह नय पदार्थों का जैसा स्वरूप है उसरूप से उनके ग्रहण करने में निमित्त होने से मोक्ष का कारण है ॥८॥ नय श्रेयस् अर्थात् मोक्ष का अपदेश अर्थात् कारण है, क्योंकि वह पदार्थों के यथार्थरूप से ग्रहण करने में निमित्त है ।' (ज. ध. पु. १ पृ. २११) मो. शा. अ. १ सूत्र ६ में भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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