Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १२७९
इसीप्रकार यह परिणमन स्वभावधारीजीव जब संसार पर्यायरूप परिणमन करता है तब यह जीव संसारी होता है, किन्तु जब यह जीव चारित्र के द्वारा अष्टकर्मों का क्षयकर शुद्ध सिद्धपर्यायरूप परिणमन करता है तब यह जीव शुद्ध हो जाता है। एक जीव की एक ही समय में संसारी और सिद्ध ऐसी दो पर्यायें नहीं हो सकती हैं। संसाररूप पूर्वपर्याय का व्यय ( नाश ) होने पर अपूर्व नवीन सिद्ध शुद्धपर्याय का उत्पाद होता है । जबतक संसाररूप पर्याय विद्यमान है तबतक सिद्धपर्याय का उत्पाद नहीं हो सकता ।
- -जं. ग. 22-5-75/VIII/ शान्तिलाल प्रत्येक द्रव्य कथंचित् स्वतंत्र है, कथंचित् परतन्त्र शंका-प्रत्येक द्रव्य कथंचित् परतंत्र व कथंचित् स्वतंत्र है । क्या यह कथन सत्य है ?
समाधान-प्रत्येक द्रव्य द्रव्यदृष्टि से स्वतंत्र है, पर्याय दृष्टि से परतंत्र है, यह बात सिद्धों में भी लागू होती है।
-पत्र 28-6-80/ / ज. ला. जैन, भीण्डर स्यावाद अधूरा सत्य नहीं है शंका-श्री हेमचन्द्राचार्य ने स्याद्वाद को अधूरासत्य बतलाया है। अथवा यों कहा जाय कि स्याद्वाद अपुरेसत्य पर ले जाकर छोड़ देता है । सो यदि वास्तव में स्याद्वाद अधुरासत्य है तो पूर्णसत्य कौनसा है ? बताने की कृपा करें।
समाधान-किसी भी दि० जैनाचार्य ने स्याद्वाद को अधूरामत्य नहीं बतलाया है। सभी ने पूर्णमत्य बतलाया है।
वस्तुस्वरूप का अर्थात् उसके गुणों और पर्यायों का प्रमाण के द्वारा एकसाथ ज्ञान तो हो सकता है, किन्तु उसका एकसाथ विवेचन नहीं हो सकता है, क्योंकि वचनों की प्रवृत्ति क्रम से होती है।
'क्रमप्रवतिनी भारती' ( स्वामिकातिकेय संस्कृत टीका पृ० २२२ ) इसीलिये केवली की दिव्यध्वनि में कम से ही प्राचारांग आदि का उपदेश होता है ।
अक्रमज्ञानात्कथं क्रमवतावचनानामुत्पत्तिरिति चेन्न घटविषयाक्रमज्ञानसमवेतकुम्भकाराद्घटस्य क्रमेणोत्पत्युपलम्भात् ।" (ध. पु. १ पृ. ३६८ )
केवली के अक्रमज्ञान से क्रमिकवचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि घटविषयक अक्रमज्ञान से युक्त कुम्भकार द्वारा क्रम से घट की उत्पत्ति देखी जाती है । इसलिये अक्रमवर्ती ज्ञान से ऋमिकवचनों की उत्पत्ति मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता है।
यद्यपि वस्तु में अनेकधर्म हैं, किन्तु वचनों के द्वारा एकसमय में एक ही धर्म का कथन हो सकता है। जिसधर्म का कथन हो रहा है उसके अतिरिक्त अन्यधर्म भी वस्तु में हैं इस बात को बतलाने के लिये 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है।
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