Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : ' शुभोपयोग चतुर्थगुणस्थान से प्रारम्भ होता है उससे पूर्व अशुभोपयोग होता है ।
(प्रवचनसार गा० ९ टीका ) किन्तु शभराग प्रथमादि गुणस्थानों में भी संभव है। इस बात को दृष्टि में रखते हुए श्लोक २२० में शुभराग नहीं कहा है किन्तु शुभोपयोग कहा है
एकस्मिन् समवायादत्यन्तविरुद्ध कार्ययोरपि हि।
इह वहति घृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोपि रूढिमितः ॥२२१॥ यद्यपि शुद्ध घी जलाने में असमर्थ है, किन्तु जब अग्नि के समवाय संसर्ग से घी का स्पर्शगुण ऊष्ण हो जाता है तो उस घी से जलने का व्यवहार (कार्य) देखा जाता है । इसप्रकार संसर्ग के कारण एक ही धी में विरुद्ध कार्य होना सम्भव है । उसीप्रकार यद्यपि पूर्णरत्नत्रय कर्मबन्ध कराने में असमर्थ है तथापि राग के संसर्ग से वह रत्नत्रय असमग्रता को प्राप्त हो जाने के कारण कर्मबन्ध का कार्य करने में समर्थ हो जाता है। श्री कुन्दकुन्द तथा श्री पूज्यपाद आचार्य कहते हैं
जो जाइ जोयणसयं दियहेरोक्केण लेवि गुरुभारं। सो कि कोसद्ध पि हु ण सक्कए जाहु भुवणयले ॥२१॥ ( मोक्षपाहुड) यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियदूरवतिनी ।
यो नयत्यासु गव्यूति क्रोशार्द्ध किं स सीदति ॥ ( इष्टोपदेश) जो मनुष्य किसी भार को स्वेच्छा से दो कोस ले जाता है तो वह क्या उस भार को आधा कोस भी नहीं ले जा सकता? अवश्य ले जा सकता है। उसी तरह जिस रत्नत्रय में मोक्ष प्राप्त कराने की सामर्थ्य है तो क्या उस रत्नत्रय से स्वर्ग सुख की प्राप्ति दूरवर्ती है ? अर्थात् उस रत्नत्रय से देवायु पुण्यप्रकृति का बन्ध होकर स्वर्गसुख का मिलना सहज है । अन्य प्राचार्यों ने भी धर्म से स्वर्ग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति कही है। जैसे
देशयामि समीचीनं धर्म कर्मा
संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ २॥ (र. क. श्रा.) संस्कृत टीका-"प्राणिन उद्धृत्य स्थापयति स्वर्गापवर्गादिप्रभवे सुखे स धर्म इत्युच्यते ।" श्री समन्तभद्राचार्य तथा श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने धर्म का फल बतलाते हुए कहा है कि जो प्राणियों का उद्धार करके स्वर्गसुख तथा मोक्षसुख में रख दे वह धर्म है।
जीवस्स णिच्छयादो धम्मो दहलक्खणो हवे सुयणो।
सो रोइ देवलोए सो चिय दुक्खक्खयं कुणइ ॥ ७८ ।। [स्वामि कार्तिकेय] श्री पं० कैलाशचन्दजी कृत अर्थ-यथार्थ में जीव का आत्मीयजन उत्तमक्षमादिरूप दशलक्षणधर्म ही है। वह दशलक्षणधर्म सौधर्मादि स्वर्ग में ले जाता है और वही चारों गतियों के दुखों का नाश करता है।
गाथा ३९३ की टीका में श्री शुभचन्द्राचार्य ने लिखा है-"सौख्येन शर्मणा स्वर्गमुक्त्यादिजेन सारैः श्रेष्ठः।"
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