Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ १३१९
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
तिर्यत्र जीव हैं' यदि ऐसा न माना जावेगा तो मनुष्य, तिर्यंच श्रादि के मर्दन से हिंसा का प्रभाव हो जायगा और हिंसा के अभाव में बंध का प्रभाव होजायगा । बंध के प्रभाव में मोक्ष का भी प्रभाव हो जायगा ( समयसार गाथा ४६ ter ) । यदि मनुष्य, तिर्यंचादि पर्यायें जीव की न मानी जावे तो जीवद्रव्य के प्रभाव का प्रसंग आ जायगा क्योंकि जितनी त्रिकालसम्बन्धी अर्थपर्याय या व्यंजनपर्याय हैं उतना ही द्रव्य है । ( गो. सा. जी. गा. ५८२ )
प्रत्येक द्रव्य भेदाभेदात्मक है । मात्र अभेदात्मक नहीं है । 'सर्वथा प्रभेदपक्ष मानने पर सब द्रव्यों के एकत्व का प्रसंग श्रावेगा और एकत्व के होने से अर्थक्रियाकारी पने का प्रभाव हो जायगा तथा उसके अभाव में द्रव्य का भी अभाव हो जायगा ( आलापपद्धति ) ' अतः जीव देखने-जाननेवाला है अर्थात् उपयोगमयी है यह भी सत्यार्थ है; क्योंकि 'उपयोग' जीव का लक्षरणात्मक गुण है । व्यवहारनय का विषय द्रव्य के भेदस्वभाव, अनेकस्वभाव, उपचारस्वभाव इत्यादिक हैं । यदि व्यवहारनय को असत्यार्थ माना जावे तो उसके विषयभूत द्रव्य के भेद स्वभाव, अनेकस्वभाव, उपचरितस्वभाव आदि को भी असत्यार्थ मानना पड़ेगा । वस्तुस्वभाव असत्यार्थ नहीं होता । अतः व्यवहारनय भी सत्यार्थ नहीं है ।
यद्यपि 'घी का घड़ा' व 'मिट्टी का घड़ा' दोनों व्यवहारनय के विषय हैं तथापि अपनी विवक्षा से दोनों
सत्य हैं ।
व्यवहारनय भी भूतार्थ है
शंका-समयसार ११ में जो व्यवहार को अभूतार्थं कहा है और गाथा १२ में व्यवहार को भूतार्थं कहा है सो गाथा ११ का व्यवहार मिथ्यादृष्टि का और गाथा १२ का व्यवहार सम्यग्दृष्टि का है । श्री अमृतचन्द्र और जयसेन दोनों आचार्यों की टीका से ऐसा समझ में आता है; क्या यह ठीक है ?
- जं. ग. 1, 15-8-63 / IX / प्र ेमचन्द
समाधान -- शंकाकार ने जो निष्कर्ष निकाला है, वह ठीक है । समयसार गाथा ११ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने इसप्रकार लिखा है - ' प्रबलकर्मसंज्वलनतिरोहितसहजै कज्ञायकभावस्यात्मनोऽनुभवितारः पुरुषा आत्मकर्मणो विवेकमकुर्वतो व्यवहारविमोहितहृदया : प्रद्योतमानभाववैश्वरूप्यं तमनुभवति ।'
अर्थ - 'प्रबलकर्मों के मिलने से जिसका एक ज्ञायकस्वभाव तिरोभूत होगया है, ऐसी आत्मा का अनुभव करनेवाले पुरुष आत्मा और कर्म का विवेक न करनेवाले व्यवहार में विमोहित हृदयवाले तो उस आत्मा को जिसमें भावों की विश्वरूपता प्रगट है ऐसा अनुभव करते हैं ।' 'प्रात्मा और कर्म का विवेक न करने वाले, व्यवहार में विमोहित हृदयवाले तो प्रात्मा को जिसमें भावों की विश्वरूपता ( अनेकरूपता ) प्रगट है ऐसा मानते हैं।' टीका के इन शब्दों से प्रगट है कि यहाँ पर मिथ्याव्यवहारनय अर्थात् निश्चयनय निरपेक्ष मात्र व्यवहारनय को माननेवाले का कथन है और इसीलिये ऐसे व्यवहारनय को अभुतार्थ कहा है ।
श्री जयसेनाचार्य ने भी टीका में इसप्रकार लिखा है - स्वसंवेदनरूपभेद भावनाशून्यजनो मिथ्यात्वरागादिविभावपरिणामसहितमात्मानमनुभवति ।' यहाँ पर भी 'स्वसंवेदनरूप भेदभावनाशून्यजन:' इन शब्दों से स्पष्ट है कि यहाँ पर भी मिथ्यादृष्टिपुरुष की व्यवहारनय को अथवा निश्चयनय निरपेक्ष व्यवहारनय को प्रभूतार्थ कहा है ।
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